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Showing posts from 2008

देती हूँ कोख श्रष्टा को भी ......

मै कोई बदली तो नहीं , बरस जाऊँ किसी आँगन में । घटा हूँ घनेरी, बुझाती हूँ तृष्णा तपती धरती की ....... मै कोई जलधार तो नहीं, बिखर जाऊँ कहीं धरा पर । सागर हूँ अपार, छिपाती हूँ धरोहर निज गहराई में...... मै कोई आँचल तो नहीं, ढक लूँ झूमते हुए उपवन को। रजनी हूँ पूनम, निभाती हूँ नई सुबह जीवन की...... मै कोई किरण तो नहीं, सिमट जाऊँ किसी मन में। चांदनी हूँ धवल, समाती हूँ अन्धकार के जीवन में...... मैं कोई श्रष्टा तो नहीं, कर दूँ निर्माण श्रृष्टि का। श्रष्टि हूँ सम्पूर्ण , देती हूँ कोख श्रष्टा को भी...... पूनम अग्रवाल........

बुलंद होसले

हाल ही मे स्पिन अकेडमी द्वारा आयोजित एक डांस शो देखने का अवसर मिला । मुंबई की ये संस्था जो हमारे शहर में आयी और कई स्कूल के ५००-५५० बच्चो को चुनकर उन्हें मात्र १५ दिनों के अंदर उन्हें डांस शो के लिए तैयार कर दिया । डांस शो तो बहुत से देखे है लेकिन इस शो में कुछ अलग ही बात थी ,जो मैं लिखने के लिए मजबूर हो गयी हूँ। अलग इसलिए क्यूंकि इसमे एक डांस-परफॉर्मेंस नेत्रहीन बच्चो की थी । जब ये बच्चे मंच पर आए तो इन्हे क्या पता था कि उन्हें कितने लोग देख रहे है । तालियों की गडगडाहट से पूरा प्रांगन गूंज उठा ।उन्हें अहसास करवाया गया कि तुम मस्त होकर नाचो , हम इतने सारे लोग तुम्हारे होसलो को बढ़ाने के लिए तुम्हारे साथ है। वे एक अंग से अक्षम बच्चे मस्ती से झूम रहे थे। उन्हें देखकर अक्षम और सक्षम बच्चो में अंतर कर पाना मुश्किल था । उनमे सक्षम बच्चो को मात देने का होसला जो था। उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ तालियों की गडगडाहट का अहसास था। वे बच्चे कही से भी अक्षम नही थे ,उनके होसले जो बुलंद थे। कई लोग तो बीच में ही खड़े होकर उनका तालियों से होसला बढ़ा रहे थे। जब उनकी डांस-परफॉर्मेंस समाप्त हुई तो उनके सम्मान में

मन तो है कवि मेरा.......

मन तो है कवि मेरा, शब्द कहीं गुम हो गए थे। पाया साथ तुम्हारा फ़िर , क्यूँ हम गुमसुम से हो गए थे। शब्दों के इस ताने बने में, था क्यूँ उलझा मन। बन श्याम तुम खड़े थे पथपर, फ़िर क्यूँ शब्द हुआ थे गुम । सांसों के इस आने -जाने में था क्यूँ सिमटा तन। बन सावन तुम बरस रहे थे, फ़िर क्यूँ शुब्ध हुआ था मन॥ मन तो है कवि मेरा, शब्द कहीं गुम हो गए थे। पूनम अग्रवाल .........

कुछ शेरो- शायेरी

आसमां के नजारों में तुम्हे पाया है, चमन के सितारों में तुम्हे पाया है। अफ़साने कुछ इस कदर बदले मेरे, जिधर देखू उधर तुम्हे ही पाया है॥ ------------- तसव्वुर में भी अश्क उभरे है जब कभी, पलकों से मेरी उन्हें तुमने चुरा लिया। यादों के गहरे साए ने घेरा है जब कभी, सदा देकर तुमने मुझको बुला लिया॥ ------------------ अब और क्या मांगूं मैं खुदा से, तेरा प्यार मिला दुनिया मिल गयी। सदा साथ तेरा युही बना रहे, मांगने को यही दूआ हमे मिल गयी॥ ।-------------------- तुम्हे गैरों से कब फुर्सत , हम अपने गम से कब खाली । चलो अब हो गया मिलना, न तुम खाली न हम खाली। पूनम अग्रवाल .......

दो प्रेमी मिलते है ऐसे.......

नजरों से नजरे मिली है ऐसे, नवदीप जले हो चमन में जैसे। मन में हलचल मची है ऐसे, सागरमें मंथन हो जैसे। अधरों से अधर मिले है ऐसे, गीतों से सुर मिले हों जैसे। माथे पर बुँदे छलके है ऐसे , जलनिधि से मोत्ती हों जैसे। आलिंगन में बंधे है ऐसे, कमल में भ्रमर बंद हो जैसे। मदहोशी है नयन में ऐसे, बात खास कुछ पवन मैं जैसे। बाँहों के घेरे है ऐसे, पंख पसारे हों नभ ने जैसे। शब्द मूक कुछ हुऐ है ऐसे, दिल में घडकन बजी हो जैसे। प्रेम-रस यूँ छलके है ऐसे, समुद्र -मंथन में अमृत हो जैसे। दो प्रेमी मिलते है ऐसे, तान छिडी हो गगन में जैसे । पूनम अग्रवाल .....

बेनाम

मुंबई में घटित आतंकवाद के इस नए रूप ने सबको हिला कर रख दिया है। यम् के रूप में आए आतंकवादी .... मासूमों की भयानक मोतें ...आख़िर क्या साबित करना चाहते हैवे... इंसान की इंसान से इतनी नफरत .....नफरतों का सैलाब हो जैसे..... सबके मन में एक रोष है ...एक रंज है...पूरी की पूरी व्यवस्था चरमरा चुकी है ....कब जीवन फिर से पटरी पर आएगा ... कुछ पता नही......मेरा salaam है .... उनको jinhone जीवन बलिदान दिया..... रूह पर थे जो कभी कुछ जख्म, नजर अब सारे आने लगे है। तुफा है कि ये है बवंडर , शकल यम् की ये पाने लगा है । जंगल की आग कुछ यूँ धधकी , तन क्या मन भी झुलसने लगा है। ठहर जाओ ए तेज हवाओं ! लहू उभर कर अब आने लगा है॥ पूनम अग्रवाल ....

कविताओं के बीच एक पन्ना ये भी ......

रात के साढ़े तीन बजे है । मुझे नींद नही आ रही है। दो दिन पहले ससुराल से आई बिटिया वापिस ससुराल चली गयी है । उसकी याद करके बार बार आँखे नम हो रही है । माँ की गोद में एक बच्चे की तरह लिपट जाना उसे कितना अच्छा लगता है । फ़िर से बचपन में लौट जाना कितना आल्हादित करता है उसे । रहती होगी ससुराल में बड़ी बनकर, मेरे आँचल में तो वो एक छोटी सी गुडिया बन जाती है। बार बार मेरे कंधे पर सिर रखकर आँखे बंदकर उस पल का पूरा आनंद लेना चाहती है , न जाने फ़िर कब ये सुख मिल पायेगा। उसके ससुराल जाने के दो दिन पहले से ही एक मन कुछ अंदर से उदास हो जाता है। विदाई के समय मेरा कोई समान तो नही रह गया -कहते हुए पूरे घर का चक्कर यूँ लगाया जैसे पूरा घर आँखों में कैद कर साथ लेजाना चाहती हो । मै उसके पीछे खडी हूँ और उसकी इस समय की मनोभावना को पूरी तरह समझ रही हूँ। अपने रूम की हरेक छोटी चीज को यूँ नजर भरकर देखा मानो हर चीज को नजर में समेत कर ले जाना चाहती हो । अपने आसुओं को रोकना बहुत अच्छा आता है तुम्हे .काश! मुझे आता । बिटिया तुम्हारा कोई समान तो नही रहा यहाँ , लेकिन हर समान में तुम्हारी यादें रह गयी है यहाँ । मै daily स

शर्माने लगे है .........

जिन फूलों की खुशबू पर किताबों का हक़ था , वही फूल भवरों को अब भरमाने लगे है । छिपे थे जो चेहरे मुखोटों के पीछे , वही चेहरे नया रूप अब दिखाने लगे है । पलकों पर थम चुकी थी जिन अश्कों की माला , नर्म कलियों पर ओस बन अब बहकाने लगे है। जिन साजों पर जम चुकी थी परत धूल की , वही साज नया गीत अब गुनगुनाने लगे है । जिनके लिए कभी वो सजाते थे ख़ुद को, वही आईने देख उन्हें अब शर्माने लगे है..... पूनम अग्रवाल.......

कहर कोसी का "सजल जल"

नभ में जल है, थल में जल है, जल में जल है। कैसी ये विडंबना ? तरसे मानव जल को है। भीगा तन है, भीगा मन है, सूखे होंठ - गला रुंधा सा। हर नयन मगर सजल है..... पूनम अग्रवाल....
बिखर गया कोई मेघ गगन पर, नई-नई सूरत ढली ....... बिखर गया कोई दर्पण धरा पर, सूरत वही दिशा बदली ॥

स्वप्न

स्वप्न यहाँ पलकों पर , सजा करते है। साकार हो जाता है , जब स्वप्न कोई। दिन बदल जाते है, रातें बदल जाती है। बिखर जाता है, जब स्वप्न कोई । तब भी---- दिन बदल जाते है, रातें बदल जाती है। अश्क उभर आते है, दोनों ही सूरतों में। फर्क बस है इतना- कभी ये सुख के होते है । कभी ये दुःख के होते है। स्वप्न यहाँ पलकों पर, सजा करते है ..... पूनम अग्रवाल ....

' निर्वाण '

सर्वत्र हो तुम , सर्वस्व भी तुम। रचना हो तुम , रचनाकार भी तुम। सर्जन हो तुम, स्रजन्हारभी तुम। मारक हो तुम , तारक भी तुम। स्रष्टी हो तुम, श्रष्टा भी तुम। दृष्टी हो तुम, दृष्टा भी तुम। मुक्ती हो तुम , 'निर्वाण' भी तुम।

सावन का सूरज

मेघों में फंसे सूरज, तुम हो कहाँ? सोये से अलसाए से, रश्मी को समेटे हुए, तुम हो कहाँ ? मेरे उजालों से पूछों - मेरी तपिश से पूंछो- सूरज हूँ पर सूरज सा दीखता नहीं तो क्या ! पिंघली सी तपन मेरी दिखती है तो क्या ! मैं हूँ वही, मैं हूँ वहीं , मैं था जहाँ ___ पूनम अग्रवाल ......

प्रेम

गगन मांगा सूरज तो मिलना ही था। सागर माँगा मोती तो गिनना ही था। बगीचा माँगा फूल तो खिलना ही था। जग माँगा 'प्रेम' तो मिलना ही था॥ poonam agrawal

आवाज

तंग हो गली या कि सड़क धुली हुई , राह को एक चुनना होगा। आँखें हो बंद या कि खुली हुई स्वप्न तो एक बुनना होगा। बातें कुछ ख़ास या कि यादें भूली हुई, वायदा कोई गुनना होगा। सन्नाटा हो दूर या कि हलचल घुली हुई, आवाज को मन की सुनना होगा॥ पूनम अग्रवाल

आशा

बात ये बहुत पुरानी है, एक बहन की ये कहानी है। मांजी सब उनको कहते थे, प्रेमाश्रु सदा उनके बहते थे। कमर थी उनकी झुकी हुई, हिम्मत नही थी रुकी हुई। पूरा दिन काम वो करती थी, कभी आह नही भरती थी । सिर्फ़ काम और काम ही था, थकने का तो नाम न था। रसोई जब वो बनाती थी , भीनी सी सुगंध आती थी । चूल्हे पर खाना बनता था, धुए की महक से रमता था। कुछ अंगारे निकालती हर रोज, पकाती थी उस पर चाय कुछ सोच। शायद भाई कहीं से आ जाए, तुंरत पेश करुँगी चाय। थकान भाई की उतर जायेगी, गले में चाय ज्यूँ फिसल जायेगी। नही था वो प्याला चाय का , वो तो थी एक आशा। बुझी सी आँखों में झूलती , कभी आशा कभी निराशा। बहन के प्यार की न कभी, कोई बता सका परिभाषा..... पूनम अग्रवाल .....

भगवान् ( ईश्वर )

रोंदी मिट्टी का ढेर नहीं मैं , हवा के झोंके से उड जाऊँ । भ से भूमी हूँ मैं सम्पूर्ण - बादल का एक टुकडा नहीं मैं, बरस जाऊँ किसी आंगन में। ग से गगन हूँ मैं अनंत- मंद पवन का झोंका नहीं मैं, उड़ा लाऊ कुछ तिनके ,धूल । व से वायु हूँ मैं प्राण -रक्षक - टिमटिमाते दिए की लों नही मैं, बुझ जाऊँ दिए की बाती संग अ से अग्न हूँ मैं दाहक - झर झर बहती धार नहीं मैं, समा जाऊ किसी सरिता में. न से नीर हूँ मैं जीवन - दायक- सम्पूर्ण स्राश्ती के हम हैं विधाता , मिलकर बनते हैं 'भगवान्'- रूष्ट एक भी हो जाए फ़िर , मानव का नहीं है कल्याण । पंचतत्व हैं हम कहलाते ' हमसे हुवा सबका निर्माण। सर्वत्र हमारी पूजा होती। सम्पूर्ण जगत में हम विद्यमान। पूनम अग्रवाल-

प्रतिबिम्ब है वो मेरा

.. बित्तू हमेशा कहती रही कभी मेरे लिए भी कुछ लिखिए .... तो आज मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी प्रतिमुर्ती के लिए कुछ लिख रही हूँ.. ... कहते है लोग- बिटिया परछाई है तुम्हारी, मैं कहती हूँ मगर- परछाई तो श्याम होती है। न कोई रंग- बस सिर्फ़ बेरंग । वो तो है मेरा प्रतिबिम्ब - सदा सामने रहता है। वो तो है मेरी प्रतीमुरती - छवी मेरी ही दिखती है । ।

अंश

जब एक माँ अपनी नाजों से पली बेटी को उसके सपनो के राजकुमार के साथ विदा करती है। उस समय जो एहसास ,जो ख्याल मेरे मन को भिगो गए- शायद हरेक की ममता इसी तरेह उमड़ पड़ती होगी ........ ये रचना सिर्फ मेरी बिटिया के लिए ...... समाई थी सदा से वो मुझमें ... एक अंश के तरह॥ एहसास है एक अलगाव का पिंघल रहा है ... क्यों आज मेरी आँखों में ... ख्याल आते गए बहुत से... आकर चले गए खुश हूँ मैं ... इसलिए की अंश मेरा खुश है...... -------------- ख्यालो की तपिश से पिंघल रही है बरफ आँख की... रिश्ता कोई हाथों से फिसल रहा हो जैसे...

तुक्कल ....(ज़मीनी सितारे)

गुजरात में मकर संक्रान्ती के दिन पतंग - महोत्सव की अति महत्ता है। दिन के उजाले में आकाश रंगीन पतंगों से भर जाता है। अँधेरा होते ही पतंग की डोर में तुक्कल बांध कर उडाया जाता है। जो उड़ते हुए सितारों जैसे लगते है। उड़ती हुयी तुक्कल मन मोह लेने वाला द्रश्य उत्पन्न करती है। इस द्रश्य को मैंने कुछ इस तरह शब्दों में पिरोया है......... कारवाँ है ये दीयों का, कि तारे टिमटिमाते हुए। चल पड़े गगन में दूर , बिखरा रहे है नूर। उनका यही है कहना , हे पवन ! तुम मंद बहना । आज है होड़ हमारे मन में , मचलेंगी शोखियाँ गगन में। आसमानी सितारों को दिखाना, चाँद को है आज रिझाना। पतंग है हमारी सारथी, उतारें गगन की आरती। हम है जमीनी सितारे, कहते है हमे 'तुक्कल' ........ पूनम अग्रवाल ....