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Showing posts from 2011

New Hindi Poem By Abhishek Bajaj- क्यूँ ढूंढ़ता उस ख्वाब को

क्यूँ ढूंढ़ता उस ख्वाब को,के कौन जाने किधर गया, जो साथ है उसे पास रख जो गुज़र गया सो गुज़र गया, अपना समझ जिसे खुश हुआ अहसास समझ कर भूल जा, बस नशा था थोडा प्यार का सुबह हुई तो उतर गया, ... उस शख्स का भी क्या कसूर था जो पास होकर भी दूर था, ये तो ज़माने का दस्तूर है वो भी जमाने संग बदल गया, ना रखना दिल मे यादों को आँखों को ना रोने देना, झोंका था एक हवा का,आया और छु के निकल गया.... - Abhishek Bajaj

Dr. Kumar Vishwas New Hindi Poem- Kuch Chote Sapnoo ke Badle

कुछ छोटे सपनो के बदले , बड़ी नींद का सौदा करने , निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे ! वही प्यास के अनगढ़ मोती ,वही धूप की सुर्ख कहानी , वही आंख में घुटकर मरती ,आंसू की खुद्दार जवानी , ... हर मोहरे की मूक विवशता ,चौसर के खाने क्या जाने हार जीत तय करती है वे , आज कौन से घर ठहरेंगे....! निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे ! कुछ पलकों में बंद चांदनी ,कुछ होठों में कैद तराने , मंजिल के गुमनाम भरोसे ,सपनो के लाचार बहाने , जिनकी जिद के आगे सूरज, मोरपंख से छाया मांगे , उन के भी दुर्दम्य इरादे , वीणा के स्वर पर ठहरेंगे . निकल पडे हैं पांव अभागे ,जाने कौन डगर ठहरेंगे .....!!  - Dr. Kumar Vishwas

नेताजी सुभाषचन्द्र बोस(Netaji Subhashchandra Bose) - गोपालप्रसाद व्यास (Gopalprasad Vyas)

है समय नदी की बाढ़ कि जिसमें सब बह जाया करते हैं। है समय बड़ा तूफ़ान प्रबल पर्वत झुक जाया करते हैं ।। अक्सर दुनियाँ के लोग समय में चक्कर खाया करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे होते हैं, इतिहास बनाया करते हैं ।। यह उसी वीर इतिहास-पुरुष की अनुपम अमर कहानी है। जो रक्त कणों से लिखी गई,जिसकी जयहिन्द निशानी है।। प्यारा सुभाष, नेता सुभाष, भारत भू का उजियारा था । पैदा होते ही गणिकों ने जिसका भविष्य लिख डाला था।। यह वीर चक्रवर्ती होगा , या त्यागी होगा सन्यासी। जिसके गौरव को याद रखेंगे, युग-युग तक भारतवासी।। सो वही वीर नौकरशाही ने,पकड़ जेल में डाला था । पर क्रुद्ध केहरी कभी नहीं फंदे में टिकने वाला था।। बाँधे जाते इंसान,कभी तूफ़ान न बाँधे जाते हैं। काया ज़रूर बाँधी जाती,बाँधे न इरादे जाते हैं।। वह दृढ़-प्रतिज्ञ सेनानी था,जो मौका पाकर निकल गया। वह पारा था अंग्रेज़ों की मुट्ठी में आकर फिसल गया।। जिस तरह धूर्त दुर्योधन से,बचकर यदुनन्दन आए थे। जिस तरह शिवाजी ने मुग़लों के,पहरेदार छकाए थे ।। बस उसी तरह यह तोड़ पींजरा , तोते-सा बेदाग़ गया। जनवरी माह सन् इकतालिस,मच गया शोर वह भाग गया।।

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ (Aise Main Man Bahlata Hoon) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! नहीं खोजने जाता मरहम, होकर अपने प्रति अति निर्मम, उर के घावों को आँसू के खारे जल से नहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ! आह निकल मुख से जाती है, मानव की ही तो छाती है, लाज नहीं मुझको देवों में यदि मैं दुर्बल कहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

गली में आज चाँद निकला ( Gali Mein Aaj Chand Nikla) - पुष्पा पटेल( Pushpa Patel)

तुम आए जो आया मुझे याद, गली में आज चाँद निकला जाने कितने दिनों के बाद, गली में आज चाँद निकला ये नैना बिन काजल तरसे, बारह महीने बादल बरसे सुनी रब ने मेरी फ़रियाद, गली में आज चाँद निकला आज की रात जो मैं सो जाती, खुलती आँख सुबह हो जाती मैं तो हो जाती बस बर्बाद, गली में आज चाँद निकला मैं ने तुमको आते देखा, अपनी जान को जाते देखा जाने फिर क्या हुआ नहीं याद, गली में आज चाँद निकला

हम लाये हैं तूफ़ान से कश्ती निकाल के (Hum Laye Hain fan Se Kashti Nikal Ke) - प्रदीप (Pradeep)

पासे सभी उलट गए दुश्मन की चाल के अक्षर सभी पलट गए भारत के भाल के मंजिल पे आया मुल्क हर बला को टाल के सदियों के बाद फिर उड़े बादल गुलाल के हम लाये हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के तुम ही भविष्य हो मेरे भारत विशाल के इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के ... देखो कहीं बरबाद न होवे ये बगीचा इसको हृदय के खून से बापू ने है सींचा रक्खा है ये चिराग शहीदों ने बाल के इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के हम लाये हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के... दुनिया के दांव पेंच से रखना न वास्ता मंजिल तुम्हारी दूर है लंबा है रास्ता भटका न दे कोई तुम्हें धोके मे डाल के इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के हम लाये हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के... एटम बमों के जोर पे ऐंठी है ये दुनिया बारूद के इक ढेर पे बैठी है ये दुनिया तुम हर कदम उठाना जरा देखभाल के इस देश को रखना मेरे बच्चो संभाल के हम लाये हैं तूफ़ान से किश्ती निकाल के... आराम की तुम भूल भुलय्या में न भूलो सपनों के हिंडोलों मे मगन हो के न झुलो अब वक़्त आ गया मेरे हंसते हुए फूलो उठो छलांग मार के आकाश को छू लो तुम गाड़ दो गगन में तिरंगा

सच हम नहीं सच तुम नहीं( Sach Hum Nahin Sach Tum Nahin) - जगदीश गुप्त (Jagdish Gupt)

सच हम नहीं सच तुम नहीं सच है सतत संघर्ष ही । संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम। जो नत हुआ वह मृत हुआ ज्यों वृन्त से झर कर कुसुम। जो पंथ भूल रुका नहीं, जो हार देखा झुका नहीं, जिसने मरण को भी लिया हो जीत, है जीवन वही। सच हम नहीं सच तुम नहीं। ऐसा करो जिससे न प्राणों में कहीं जड़ता रहे। जो है जहाँ चुपचाप अपने आपसे लड़ता रहे। जो भी परिस्थितियाँ मिलें, काँटें चुभें, कलियाँ खिलें, टूटे नहीं इन्सान, बस सन्देश यौवन का यही। सच हम नहीं सच तुम नहीं। हमने रचा आओ हमीं अब तोड़ दें इस प्यार को। यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मँझधार को। जो साथ कूलों के चले, जो ढाल पाते ही ढले, यह ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी जो सिर्फ़ पानी-सी बही। सच हम नहीं सच तुम नहीं। अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना। अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना। आकाश सुख देगा नहीं, धरती पसीजी है कहीं, हर एक राही को भटक कर ही दिशा मिलती रही सच हम नहीं सच तुम नहीं। बेकार है मुस्कान से ढकना हृदय की खिन्नता। आदर्श हो सकती नहीं तन और मन की भिन्नता। जब तक बंधी है चेतना, जब तक प्रणय दुख से घना, तब तक न मानूँगा कभी इस राह को ही मैं सही

दिल के ज़ज्बातों को होंठो पे ठिकाना न मिला

दिल के ज़ज्बातों को होंठो पे ठिकाना न मिला, हर नए ज़ख्मों के बीच मुस्कुराने का बहाना ना मिला, मेरे ही शहर के हर शख्स से मिला मै अजनबी की तरह, आज दोस्तों की महफ़िल मे भी मुझे कोई दोस्त पुराना ना मिला, हँसते उसके चेहरे को मै भुलाता तो भुलाता कैसे, गम की तो लकीरें भी नहीं फिर उन्हें हांथों से मिटाता कैसे, कितना ढूंढा दर दर जा के पर कँही वो ज़माना ना मिला, आज दोस्तों की महफ़िल मे भी मुझे कोई दोस्त पुराना ना मिला, तन्हाई को मेरा हाथ थमा के तू अपनी मंजिल को चला गया, मोहब्बत मे खोना किसे कहते हैं चलो इतना तो सीखा गया, जिस जाम मे न दिखे तेरा चेहरा मयखाने मे वो पैमाना ना मिला, आज दोस्तों की महफ़िल मे भी मुझे कोई दोस्त पुराना ना मिला…..

अंदाज़ तुम्हारे जैसा था

बारिश की तरह बूंदों ने जब दस्तक दी दरवाजे पर महसूस  हुआ तुम आये हो .. अंदाज़ तुम्हारे जैसा था हवा के हलके झोके ने जब आहात की खिड़की पर महसूस  हुआ  तुम  चलते हो ... अंदाज़ तुम्हारे जैसा था मैंने बूंदों को अपने हाथ पे टपकाया तो एक सर्द सा क्यों एहसास हुआ.... की लफ्ज़ तुम्हारे जैसा था मैं तनहा चला जब बारिश मई एक झोके ने मेरा साथ दिया मई समझा तुम हो साथ मेरे एहसास तुम्हारे जैसा था फिर रुक गई वो बारिश भी और रही न बाकि आहात भी मई समझा मुझे तुम छोड़ गई... अंदाज़ तुम्हारे जैसा था. बारिश की तरह बूंदों ने जब दस्तक दी दरवाजे पर महसूस हुआ तुम आये हो... अंदाज़  तुम्हारे जैसा था.!!!!!

आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ

जब से आये हो जिंदगी में मेरे चमन को बहारो का मतलब याद आया दिल कहे, जीवन की ये बगिया तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ पूछे है पगली, याद करते हो मुझे कैसे कहू, हर शब्-ओ-सहर तेरी याद में डूबे है हर वक़्त जो दिल धडके है तेरी खातिर, उसकी हर शाम तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ हर सुबह का आगाज़ तुम्ही से हर शाम तेरे नाम से ढले हर जाम से पहले कहू ‘बिस्मिल्लाह’,हर वो जाम तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ वो रोये है तो बरसे है बादल इधर भी हँसे है तो खिले है फूल इधर भी तेरी हर मुस्कराहट पर,ये मेरी जान तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ

मै सोता रहा तेरी यादों के चराग जला कर

मै सोता रहा तेरी यादों के चराग जला कर, लगा गयी आग एक हलकी सी हवा आ कर, इसे मेरी बदनसीबी नहीं तो और क्या कहोगे, प्यासा रहा मै दरि या के इतने पास जा कर, आज जब तेरी पुरानी तस्वीरों को पलटा मैंने, हंसती है कैसे देखो ये भी मुझे रुला कर, किस्मत ने दिया धोखा और खो दिया तुझे, क्या करूँगा मै अब सारा जहाँ पा कर, दिल की गहराइयों मे कितने उतर गए हो तुम, कोई देख भी नहीं सकता उतनी गहराइयों मे जा कर, जब तुमने कहा मुझसे के मेरे नहीं हो तुम, लगा जैसे मौत चली गयी हो मुझको गले लगा कर.....

उड़ान

मंजिले उन्हें ही मिलती है जिनके सपनो में जान होती है पंखों से कुछ नही होता, हौसलों से उड़न होती है मंजिल तो मील ही जाएगी भटक कर ही सही गुमराह तो वो है जो घर से निकले ही नहीं .....

अब वीकएंड पर भी नहाने लगा हूं !!!

कहाँ थी कमी, और कहाँ था वक़्त, तेरे आने से पहले तेरे चक्कर में ऐ जान-ऐ-जाना, अब काम से वक़्त चुराने लगा हूं … ये कैसा सितम काफिर तेरा मेरे मोबाइल पर कही बुझ न जाये ये चिराग, अब चार्जर भी साथ लेकर आने लगा हूं आनी है दिवाली और दिल सफाई शुरू हुयी मेरे दिल की चली न जाये बत्ती, तुझे दिल में जलाने लगा हूं तेरे बदन से जो खुशबु महके और शमा रंगीन हो कुछ तो भला किया तुने सनम,अब डीओडोरेंट के पैसे बचाने लगा हूं तेरी बातो से फुर्सत कहा और तेरी यादो से वक़्त जी भर के देखू तुझे,इसलिए अब वीकएंड पर भी नहाने लगा हूं अब न कहना के बहुत अमीरी है तेरे मिलने में यहाँ लुट चुका हूं मैं , बस कड़ी कोशिश से गरीबी छुपाने लगा हु मेरी कविता इतनी फर्जी भी होगी,सोचा न था देख तेरी मोहब्बत में मैं,क्या क्या क्या क्रेप गाने लगा हूं 

वो बचपन की यादें आज भी तन्हाई मे खोजता हूँ मै

वो बचपन की यादें आज भी तन्हाई मे खोजता हूँ मै गुम हो जाता हूँ खुद मे जब उसके बारे मे सोचता हूँ मै नए साल पे दोस्तों के साथ क्या पिकनिक खूब मनाई थी छोटे परदे पे बड़ी फ़िल्मी देख के जलेबियाँ खूब खाई थी क्रिकेट खेलने की तो हर पल होती हमारी तैयारी थी कितने डंडे खाए पापा चाचा से उफ़ फिर भी क्या बेकरारी थी दोस्तों की मण्डली निकलती थी साथ साथ हर होली मे सुबह पिचकारियों मे रंग होता शाम गुलाल भरा होता झोली मे दशहरे की तो बात जुदा थी वो मेला कितना प्यारा था मंदिर के पीछे चोर सिपाही,लुका-छुपी उफ़ वो वक़्त हमारा था दीवाली के पटाखे देखकर खुशियों मे पर लग जाते थे कर के परेशान मोहल्ले मे सबको यंहा वंहा पटाखे बहुत जलाते थे बीता बचपन गुज़रा जमाना अब यादों में खुश हो लेने दो न जाने क्यूँ दिल है मेरा जी भर के आज मुझे रो लेने दो... क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है

कुछ अश‍आर ( Kuch Ashaar) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil'),

इलाही ख़ैर वो हरदम नई बेदाद करते हैँ हमेँ तोहमत लगाते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ ये कह कहकर बसर की उम्र हमने क़ैदे उल्फत मेँ वो अब आज़ाद करते हैँ वो अब आज़ाद करते हैँ सितम ऐसा नहीँ देखा जफ़ा ऐसी नहीँ देखी वो चुप रहने को कहते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ

पीने पिलाने के सब हैं बहाने

कहाँ  की  मुहब्बत  कहाँ  के  फ़साने पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने ख़ुशी  में   भी   पी  है तू  ग़म  में  भी  पी  है हैं  मस्ती  भरे  ये  मैखाने  के  पैमाने  ...पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने सताए  न  हमको  कभी  याद  इ  माजी चलो  भूल  जाएँ  वो  गुज़रे  ज़माने पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने चलो  अब  तू  गुमनाम  एस  मैखाने  से तुम्हें  दफन  करने  हैं  सब  ग़म  पुराने पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने .. सब  हैं  बहाने

उठो धरा के अमर सपूतो ( Utho Dhara Ke Amar Sapooton) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)

उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो । जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो । नया प्रात है, नई बात है, नई किरण है, ज्योति नई । नई उमंगें, नई तरंगे, नई आस है, साँस नई । युग-युग के मुरझे सुमनों में, नई-नई मुसकान भरो । डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नए स्वरों में गाते हैं । गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे मस्त हुए मँडराते हैं । नवयुग की नूतन वीणा में नया राग, नवगान भरो । कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है । धरती माँ की आज हो रही नई सुनहरी काया है । नूतन मंगलमयी ध्वनियों से गुंजित जग-उद्यान करो । सरस्वती का पावन मंदिर यह संपत्ति तुम्हारी है । तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है । शत-शत दीपक जला ज्ञान के नवयुग का आह्वान करो । उठो धरा के अमर सपूतो, पुनः नया निर्माण करो ।

शोक की संतान (Shok Ki Santaan) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar'),

हृदय छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा। टीस उसे उठती है, जिसका भाग्य खुलता है। वेदना गोद में उठाकर सबको निहाल नहीं करती, जिसका पुण्य प्रबल होता है, वह अपने आसुओं से धुलता है। तुम तो नदी की धारा के साथ दौड़ रहे हो। उस सुख को कैसे समझोगे, जो हमें नदी को देखकर मिलता है। और वह फूल तुम्हें कैसे दिखाई देगा, जो हमारी झिलमिल अंधियाली में खिलता है? हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं तुम हमारी कुटिया को देखकर जलते हो। युगों से हमारा तुम्हारा यही संबंध रहा है। हम रास्ते में फूल बिछाते हैं तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो। दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए, तुम पानी की बाढ़ में से सुखों को छान लोगे। चाहे हिटलर ही आसन पर क्यों न बैठ जाए, तुम उसे अपना आराध्य मान लोगे। मगर हम? तुम जी रहे हो, हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं। आयु तेजी से भागी जाती है और हम अंधेरे में जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं। असल में हम कवि नहीं, शोक की संतान हैं। हम गीत नहीं बनाते, पंक्तियों में वेदना के शिशुओं को जनते हैं। झरने का कलकल, पत्

क्षण भर को क्यों प्यार किया था (Kshan Bhar Ko Kyoon Pyaar Kiya Tha) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर, तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’ और न कुछ मैं कहने पाया - मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? वह क्षण अमर हुआ जीवन में, आज राग जो उठता मन में - यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

इतने ऊँचे उठो ( Itne Unche Utho) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है। देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से जाति भेद की, धर्म-वेश की काले गोरे रंग-द्वेष की ज्वालाओं से जलते जग में इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥ नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो नये राग को नूतन स्वर दो भाषा को नूतन अक्षर दो युग की नयी मूर्ति-रचना में इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥ लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन गति, जीवन का सत्य चिरन्तन धारा के शाश्वत प्रवाह में इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है। चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे सब हैं प्रतिपल साथ हमारे दो कुरूप को रूप सलोना इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥

एक आशीर्वाद (Ek Ashirvad) - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

जा तेरे स्वप्न बड़े हों। भावना की गोद से उतर कर जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें। चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये रूठना मचलना सीखें। हँसें मुस्कुराऐं गाऐं। हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें उँगली जलायें। अपने पाँव पर खड़े हों। जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

कदम कदम बढ़ाये जा (Kadam Kadam Badhaye Ja) - कैप्टन राम सिंह (Captain Ram Singh)

कदम कदम बढ़ाये जा खुशी के गीत गाये जा ये जिंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा तू शेर-ए-हिन्द आगे बढ़ मरने से तू कभी न डर उड़ा के दुश्मनों का सर जोश-ए-वतन बढ़ाये जा कदम कदम बढ़ाये जा खुशी के गीत गाये जा ये जिंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा हिम्मत तेरी बढ़ती रहे खुदा तेरी सुनता रहे जो सामने तेरे खड़े तू खाक में मिलाये जा कदम कदम बढ़ाये जा खुशी के गीत गाये जा ये जिंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा चलो दिल्ली पुकार के ग़म-ए-निशाँ संभाल के लाल क़िले पे गाड़ के लहराये जा लहराये जा कदम कदम बढ़ाये जा खुशी के गीत गाये जा ये जिंदगी है क़ौम की तू क़ौम पे लुटाये जा

जंगल की याद मुझे मत दिलाओ (Jungle Ki Yaad Mujhe Mat Dilao) - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Sarveshwardayal Saxena)

कुछ धुआँ कुछ लपटें कुछ कोयले कुछ राख छोड़ता चूल्हे में लकड़ी की तरह मैं जल रहा हूँ, मुझे जंगल की याद मत दिलाओ! हरे —भरे जंगल की जिसमें मैं सम्पूर्ण खड़ा था चिड़ियाँ मुझ पर बैठ चहचहाती थीं धामिन मुझ से लिपटी रहती थी और गुलदार उछलकर मुझ पर बैठ जाता था. जँगल की याद अब उन कुल्हाड़ियों की याद रह गयी है जो मुझ पर चली थीं उन आरों की जिन्होंने मेरे टुकड़े—टुकड़े किये थे मेरी सम्पूर्णता मुझसे छीन ली थी ! चूल्हे में लकड़ी की तरह अब मैं जल रहा हूँ बिना यह जाने कि जो हाँडी चढ़ी है उसकी खुदबुद झूठी है या उससे किसी का पेट भरेगा आत्मा तृप्त होगी, बिना यह जाने कि जो चेहरे मेरे सामने हैं वे मेरी आँच से तमतमा रहे हैं या गुस्से से, वे मुझे उठा कर् चल पड़ेंगे या मुझ पर पानी डाल सो जायेंगे. मुझे जंगल की याद मत दिलाओ! एक—एक चिनगारी झरती पत्तियाँ हैं जिनसे अब भी मैं चूम लेना चाहता हूँ इस धरती को जिसमें मेरी जड़ें थीं!

एक भी आँसू न कर बेकार (Ek Bhi Aansoo Na Kar Bekar) - रामावतार त्यागी (Ram Avtar Tyagi),

एक भी आँसू न कर बेकार जाने कब समंदर मांगने आ जाए! पास प्यासे के कुआँ आता नहीं है यह कहावत है, अमरवाणी नहीं है और जिस के पास देने को न कुछ भी एक भी ऐसा यहाँ प्राणी नहीं है कर स्वयं हर गीत का श्रृंगार जाने देवता को कौनसा भा जाय! चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं हर छलकते अश्रु को कर प्यार जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय! व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की काम अपने पाँव ही आते सफर में वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा जो स्वयं गिर जाय अपनी ही नज़र में हर लहर का कर प्रणय स्वीकार जाने कौन तट के पास पहुँचा जाए!

सूरज को नही डूबने दूंगा (Suraj Ko Nahin Doobne Doonga) - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Sarveshwardayal Saxena)

अब मै सूरज को नही डूबने दूंगा। देखो मैने कंधे चौड़े कर लिये हैं मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर खड़ा होना मैने सीख लिया है। घबराओ मत मै क्षितिज पर जा रहा हूँ। सूरज ठीक जब पहाडी से लुढ़कने लगेगा मै कंधे अड़ा दूंगा देखना वह वहीं ठहरा होगा। अब मै सूरज को नही डूबने दूंगा। मैने सुना है उसके रथ मे तुम हो तुम्हें मै उतार लाना चाहता हूं तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो तुम जो साहस की मूर्ति हो तुम जो धरती का सुख हो तुम जो कालातीत प्यार हो तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो तुम्हें मै उस रथ से उतार लाना चाहता हूं। रथ के घोड़े आग उगलते रहें अब पहिये टस से मस नही होंगे मैने अपने कंधे चौड़े कर लिये है। कौन रोकेगा तुम्हें मैने धरती बड़ी कर ली है अन्न की सुनहरी बालियों से मै तुम्हें सजाऊँगा मैने सीना खोल लिया है प्यार के गीतो मे मै तुम्हे गाऊंगा मैने दृष्टि बड़ी कर ली है हर आँखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊंगा। सूरज जायेगा भी तो कहाँ उसे यहीं रहना होगा यहीं हमारी सांसों मे हमारी रगों मे हमारे संकल्पों मे हमारे रतजगों मे तुम उदास मत होओ अब मै किसी भी सू

पतवार (Patvaar) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman'),

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार । आज सिन्धु ने विष उगला है लहरों का यौवन मचला है आज ह्रदय में और सिन्धु में साथ उठा है ज्वार तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार । लहरों के स्वर में कुछ बोलो इस अंधड में साहस तोलो कभी-कभी मिलता जीवन में तूफानों का प्यार तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार । यह असीम, निज सीमा जाने सागर भी तो यह पहचाने मिट्टी के पुतले मानव ने कभी ना मानी हार तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार । सागर की अपनी क्षमता है पर माँझी भी कब थकता है जब तक साँसों में स्पन्दन है उसका हाथ नहीं रुकता है इसके ही बल पर कर डाले सातों सागर पार तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार ।

काश मै तुम्हे अपने गीत सुना पाता

काश मै तुम्हे अपने गीत सुना पाता, काश मै तेरी बांहों मे आ पाता, काश मै तेरे होंठों से निकली हर बात बन जाता, काश मै तेरी आँखों से गुजरी हर रात बन जाता, काश मै तेरे दिल मे तेरे धड़कन की तरह रहता, काश मै तेरी यादों मे तेरे साजन की तरह रहता, काश मै तेरी हर जरूरत की तरह होता, काश मै तेरे आईने मे तेरी सूरत की तरह होता, काश मै तेरे केशों मे लगे गुलाब की तरह होता, काश मै तेरे नींदों मे आये ख्वाब की तरह होता, पर ये हो न सका और तू मुझसे जुदा हो गया, और मेरे गीतों मे वफ़ा की जगह बेवफा हो गया.. पर अब सोचता हूँ............. काश के मेरे गीतों मे फिर तू समां जाये, काश के आवाज़ दूँ तुझको और तू आये, मिले कुछ इस तरह के फिर न जुदा हो, और मेरे गीतों मे वफ़ा की जगह वफ़ा हो, वफ़ा हो , वफ़ा हो.......................... For Hindi Poem   visit

कलम, आज उनकी जय बोल (Kalam Aaj Unki Jai Bol) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar'),

जला अस्थियां बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल। कलम, आज उनकी जय बोल जो अगणित लघु दीप हमारे तूफानों में एक किनारे, जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन मांगा नहीं स्नेह मुंह खोल। कलम, आज उनकी जय बोल पीकर जिनकी लाल शिखाएं उगल रही सौ लपट दिशाएं, जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल। कलम, आज उनकी जय बोल अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल। कलम, आज उनकी जय बोल

फिर भी दिल को उसके लिए बेक...अरार क्यूँ करता हूँ

यंहा  उसका  मेरा  होना  मुमकिन  ही  नहीं, फिर  भी  उससे  प्यार  क्यूँ  करता  हूँ, जिन  राहों  पर  बन  नहीं  सकते  उसके पावों  के निसान, उनपर  पलकें  बिछाये  उसका  इन्तेजार  क्यूँ  करता  हूँ, उससे  मेरे  प्यार  का  किसी  से  इज़हार  ना कर  पाऊ, फिर  बार  बार  खुद  से  ये  इकरार  क्यूँ  करता  हूँ, और  उसे  भी   इल्म  ना होगा  मेरे  प्यार  का,  फिर  भी  दिल  को  उसके लिए  बेक...अरार  क्यूँ  करता  हूँ . Related Searches:   क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है

आइना भी तेरे दीदार से इतरा रहा है

आइना भी तेरे दीदार से इतरा रहा है, वो खुद को इस ज़माने मे सबसे हसीं पा रहा है, वो नादान तो इतना भी नहीं समझता , ... तेरा रूप उसे इतना हसीं बना रहा है.... Hindi Poem

क्यूँ ढूंढता उस ख्वाब को के कौन जाने किधर गया

  क्यूँ ढूंढता उस ख्वाब को के कौन जाने किधर गया जो पास है उसे साथ रख जो गुज़र गया सो गुज़र गया अपना समझ जिसे खुश हुआ अहसास समझ कर भूल जा बस नशा था थोड़ा प्यार का सुबह हुई तो उतर गया ... उस शख्स का भी क्या कसूर था जो पास होकर भी दूर था ये तो ज़माने का दस्तूर है वो भी ज़माने संग बदल गया न रखना दिल मे यादों को और ना आँखों को रोने देना झोंका था बस एक हवा का आया और छु के निकल गया

क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है,

क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है , कर दिया दिल से दूर मगर प्यार आज भी है , उनके चेहरे से इन आँखों का रिश्ता बड़ा अजीब है , ... देखे किसी और को लगता वही करीब है , ... दिल मे 1 बैचैनी साँसों मे भी उलझन सी है , ख्वाबों मे उसकी यादें आज भी दुल्हन सी है .

ऐ दोस्त अब तेरे बिना जीना गंवारा ना होगा

ऐ दोस्त अब तेरे बिना जीना गंवारा ना होगा, भूल जाऊं जो नाम 1 पल के लिए तुम्हारा ना होगा, तुम भी कंही अपनी दुनिया बसाओगे फिर से, पर हमारे बिना तुम्हारा भी गुज़ारा ना होगा. तेरी आँखों से भी फिर से बरसातें ही होंगी, जो तेरी आँखों के आगे ये नज़ारा ना होगा, तेरे कानो में गुन्जेंगे ये अल्फाज़ मेरे, इतनी आवाज़ देंगे जितना किसी ने तुझे पुकारा ना होगा. दिल के ज़ज्बातों को कागज़ पर उड़ेलोगे तुम भी, कांपेगी उंगलियाँ और कोई सहारा ना होगा, जब भी मिलेगा कोई ख़त तुझे गुमनामियों मे, ख्याल आएगा मेरा पर वो ख़त हमारा ना होगा.

जब मैं छोटा था, शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी

जब मैं छोटा था , शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी , वो बचपन के खेल , वो हर शाम थक के चूर हो जाना , अब शाम नहीं होती , दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है . शायद वक्त सिमट रहा है .. जब मैं छोटा था , शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी , ... दिन भर वो हुज़ोम बनाकर खेलना , वो दोस्तों के घर का खाना , वो लड़कियों की बातें , वो साथ रोना , अब भी मेरे कई दोस्त हैं , होली , दिवाली , जन्मदिन , नए साल पर बस SMS आ जाते हैं शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं .....

जनतंत्र का जन्म (Jantantra Ka Janam) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता?हां,लंबी – बडी जीभ की वही कसम, “जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।” “सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?” ‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?” मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं; यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते ह

एक तिनका (Ek Tinka) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariaudh')

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ, एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा। आ अचानक दूर से उड़ता हुआ, एक तिनका आँख में मेरी पड़ा। मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा, लाल होकर आँख भी दुखने लगी। मूँठ देने लोग कपड़े की लगे, ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी। जब किसी ढब से निकल तिनका गया, तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए। ऐंठता तू किसलिए इतना रहा, एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

सैनिक की मौत (Sainik Ki Maut) - अशोक कुमार पाण्डेय ( Ashok Kumar Pandey)

तीन रंगो के लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा लौट आया है मेरा दोस्त अखबारों के पन्नों और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर भरपूर गौरवान्वित होने के बाद उदास बैठै हैं पिता थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच बार-बार फूट पड़ती है पत्नी कभी-कभी एक किस्से का अंत कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है और किस्सा भी क्या? किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन फिर सपनीली उम्र आते-आते सिमट जाना सारे सपनो का इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग या फिर केवल योग कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी और नौकरी जिंदगी की इसीलिये भरती की भगदड़ में दब जाना महज हादसा है और फंस जाना बारूदी सुरंगो में ’शहादत! बचपन में कुत्तों के डर से रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त आठ को मार कर मरा था बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है? वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त दरअसल उस दिन अखबारों के पहले पन्ने पर दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था और उसी दिन ठीक उसी वक्त देश के सबसे तेज चैनल पर चल रही थी क्रिकेट

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे (Mere Swapn Tumhare Pas Sahara Pane Aayenge) - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते है अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे

सुभाष की मृत्यु पर ( Subhash Ki Mrityu Par) - धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharti)

दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे प्राण तुम्हारे धूमकेतु से चीर गगन पट झीना जिस दिन पहुंचे होंगे देवलोक की सीमाओं पर अमर हो गई होगी आसन से मौत मूर्च्छिता होकर और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना और देवताओं ने ले कर ध्रुव तारों की टेक - छिड़के होंगे तुम पर तरुनाई के खूनी फूल खुद ईश्वर ने चीर अंगूठा अपनी सत्ता भूल उठ कर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिलकुल शांत और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश खोल कफ़न ताका होगा तुमने भारत का भोर।

तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह?( Tumhe Kaise Yaad Karoon Bhagat Singh) - अशोक कुमार पाण्डेय ( Ashok Kumar Pandey)

जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें जिन कारखानों में उगता था तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती है ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत कि कांपी तक नही जबान सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते अभी एक सदी भी नही गुज़री और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने तुम जिन्हें दे गए थे एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब सजाकर रख दी है उन्होंने घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर अपने अपने चश्मे सजाने को तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं अवतार बनने की होड़ में तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह जबकि जानता हूँ की तुम्

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे (Moko Kahan Dhoondho Re Bande) - कबीर (Kabir)

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में ना तीरथ मे ना मूरत में ना एकान्त निवास में ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास में ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं बरत उपास में ना मैं किरिया करम में रहता नहिं जोग सन्यास में नहिं प्राण में नहिं पिंड में ना ब्रह्याण्ड आकाश में ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में नहिं स्वांसों की स्वांस में खोजि होए तुरत मिल जाउं इक पल की तालास में कहत कबीर सुनो भई साधो मैं तो हूं विश्वास में

लगता नहीं है जी मेरा (Lagta Nahin Hai Ji Mera) - बहादुर शाह ज़फ़र (Bahadur Shah Zafar)

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

झाँसी की रानी की समाधि पर (Jhansi Ki Rani ki Samadhi Par) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी | जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी || यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की | अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की || यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी | उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी | सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी | आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी | बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से | मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से || रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी | यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी || इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते | उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते || पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी | स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी || बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी | खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी || यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की | अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

स्वदेश प्रेम (Swadesh Prem) - रामनरेश त्रिपाठी (Ramnaresh Tripathi)

अतुलनीय जिनके प्रताप का, साक्षी है प्रतयक्ष दिवाकर। घूम घूम कर देख चुका है, जिनकी निर्मल किर्ति निशाकर। देख चुके है जिनका वैभव, ये नभ के अनंत तारागण। अगणित बार सुन चुका है नभ, जिनका विजय-घोष रण-गर्जन। शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक। गूंज रही हैं सकल दिशायें, जिनके जय गीतों से अब तक। जिनकी महिमा का है अविरल, साक्षी सत्य-रूप हिमगिरिवर। उतरा करते थे विमान-दल, जिसके विसतृत वछ-स्थल पर। सागर निज छाती पर जिनके, अगणित अर्णव-पोत उठाकर। पहुंचाया करता था प्रमुदित, भूमंडल के सकल तटों पर। नदियां जिनकी यश-धारा-सी, बहती है अब भी निशी-वासर। ढूढो उनके चरण चिहन भी, पाओगे तुम इनके तट पर। सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृपित आत्म-बलि पर हो निर्भर। त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर। देश-प्रेम वह पुण्य छेत्र है, अमल असीम त्याग से वि्लसित। आत्मा के विकास से जिसमे, मनुष्यता होती है विकसित।

कोशिश करने वालों की (Koshish Karne Waalon Ki) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है। मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है। आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है। मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में। मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो। जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम। कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

उस पार न जाने क्या होगा ( Us Par Na Jaane Kya Hoga) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का, तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो, उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है, जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है, स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे, मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है; ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे; तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको, इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको, कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा, करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको? कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं, उस पार अभागे मानव का अधिकार

मेरा कुछ सामान ( Mera Kuch Saman) - गुलज़ार (Gulzar)

जब भी यह दिल उदास होता है जाने कौन आस-पास होता है होंठ चुपचाप बोलते हों जब सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो आंखें जब दे रही हों आवाज़ें ठंडी आहों में सांस जलती हो आँख में तैरती हैं तसवीरें तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए आईना देखता है जब मुझको एक मासूम सा सवाल लिए कोई वादा नहीं किया लेकिन क्यों तेरा इंतजार रहता है बेवजह जब क़रार मिल जाए दिल बड़ा बेकरार रहता है जब भी यह दिल उदास होता है जाने कौन आस-पास होता है

यह कदंब का पेड़ (Yeh Kadamb Ka Ped) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती मुझे देखने काम छोड़कर तुम बाहर तक आती तुमको आता देख बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता पत्तों मे छिपकर धीरे से फिर बाँसुरी बजाता गुस्सा होकर मुझे डाटती, कहती "नीचे आजा" पर जब मैं ना उतरता, हँसकर कहती, "मुन्ना राजा" "नीचे उतरो मेरे भईया तुंझे मिठाई दूँगी, नये खिलौने, माखन-मिसरी, दूध मलाई दूँगी" बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती जब अपने मु

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार (Phir Koi Aaya Dil-e-Zar) - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmed Faiz)

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार,नहीं कोई नहीं राहरव होगा, कहीं और चला जाएगा ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार लड़खडाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़ सो गई रास्ता तक तक के हर एक रहगुज़र अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़ गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़ अपने बेख़्वाब किवाडों को मुकफ़्फ़ल कर लो अब यहाँ कोई नहीं , कोई नहीं आएगा... शब्दार्थ दिल-ए-ज़ार = व्याकुलदिल राहरव = पथिक एवानों = महलों मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़ = मदिरा और सुरापात्र उठा लो मुकफ़्फ़ल = ताले लगा दो

ढूँढते रह जाओगे (Dhoondhte Reh Jaoge) - अरुण जैमिनी (Arun Jaimini)

चीज़ों में कुछ चीज़ें बातों में कुछ बातें वो होंगी जिन्हे कभी ना देख पाओगे इक्कीसवीं सदी में ढूँढते रह जाओगे बच्चों में बचपन जवानी में यौवन शीशों में दर्पण जीवन में सावन गाँव में अखाड़ा शहर में सिंघाड़ा टेबल की जगह पहाड़ा और पायजामे में नाड़ा ढूँढते रह जाओगे चूड़ी भरी कलाई शादी में शहनाई आँखों में पानी दादी की कहानी प्यार के दो पल नल नल में जल तराजू में बट्टा और लड़कियों का दुपट्टा ढूँढते रह जाओगे गाता हुआ गाँव बरगद की छाँव किसान का हल मेहनत का फल चहकता हुआ पनघट लम्बा लम्बा घूँघट लज्जा से थरथराते होंठ और पहलवान का लंगोट ढूँढते रह जाओगे आपस में प्यार भरा पूरा परिवार नेता ईमानदार दो रुपये उधार सड़क किनारे प्याऊ संबेधन में चाचा ताऊ परोपकारी बंदे और अरथी को कंधे ढूँढते रह जाओगे

शहीदों की चिताओं पर ( Shaheedon Ki Chitaon Par) - जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ ( Jagdamba Prasad Mishra 'Hitaishi')

उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़ न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा