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Meri Yehi Adat


Meri Yehi Adat Tum Sab Ko Sada Yaad Rahay Gi
Na Shikwah, Na Koi Gila Jab Bhi Mila Muskra K Mila.


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स्वदेश प्रेम (Swadesh Prem) - रामनरेश त्रिपाठी (Ramnaresh Tripathi)

अतुलनीय जिनके प्रताप का, साक्षी है प्रतयक्ष दिवाकर। घूम घूम कर देख चुका है, जिनकी निर्मल किर्ति निशाकर। देख चुके है जिनका वैभव, ये नभ के अनंत तारागण। अगणित बार सुन चुका है नभ, जिनका विजय-घोष रण-गर्जन। शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक। गूंज रही हैं सकल दिशायें, जिनके जय गीतों से अब तक। जिनकी महिमा का है अविरल, साक्षी सत्य-रूप हिमगिरिवर। उतरा करते थे विमान-दल, जिसके विसतृत वछ-स्थल पर। सागर निज छाती पर जिनके, अगणित अर्णव-पोत उठाकर। पहुंचाया करता था प्रमुदित, भूमंडल के सकल तटों पर। नदियां जिनकी यश-धारा-सी, बहती है अब भी निशी-वासर। ढूढो उनके चरण चिहन भी, पाओगे तुम इनके तट पर। सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृपित आत्म-बलि पर हो निर्भर। त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर। देश-प्रेम वह पुण्य छेत्र है, अमल असीम त्याग से वि्लसित। आत्मा के विकास से जिसमे, मनुष्यता होती है विकसित।

प्रभु तुम मेरे मन की जानो ( Prabhu Tum Mere Man Ki Jano) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है। किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥ प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी। यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥ इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ। तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥ तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो। जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥ मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ। और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥ मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है। मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥ तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा? हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा? मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती। बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥ कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है। दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥ मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला। यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥ यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक...

सुभाष की मृत्यु पर ( Subhash Ki Mrityu Par) - धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharti)

दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे प्राण तुम्हारे धूमकेतु से चीर गगन पट झीना जिस दिन पहुंचे होंगे देवलोक की सीमाओं पर अमर हो गई होगी आसन से मौत मूर्च्छिता होकर और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना और देवताओं ने ले कर ध्रुव तारों की टेक - छिड़के होंगे तुम पर तरुनाई के खूनी फूल खुद ईश्वर ने चीर अंगूठा अपनी सत्ता भूल उठ कर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिलकुल शांत और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश खोल कफ़न ताका होगा तुमने भारत का भोर।