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Showing posts from June, 2011

आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ

जब से आये हो जिंदगी में मेरे चमन को बहारो का मतलब याद आया दिल कहे, जीवन की ये बगिया तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ पूछे है पगली, याद करते हो मुझे कैसे कहू, हर शब्-ओ-सहर तेरी याद में डूबे है हर वक़्त जो दिल धडके है तेरी खातिर, उसकी हर शाम तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ हर सुबह का आगाज़ तुम्ही से हर शाम तेरे नाम से ढले हर जाम से पहले कहू ‘बिस्मिल्लाह’,हर वो जाम तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ वो रोये है तो बरसे है बादल इधर भी हँसे है तो खिले है फूल इधर भी तेरी हर मुस्कराहट पर,ये मेरी जान तेरे नाम कर दूँ ले, आज फिर एक कविता तेरे नाम कर दूँ

मै सोता रहा तेरी यादों के चराग जला कर

मै सोता रहा तेरी यादों के चराग जला कर, लगा गयी आग एक हलकी सी हवा आ कर, इसे मेरी बदनसीबी नहीं तो और क्या कहोगे, प्यासा रहा मै दरि या के इतने पास जा कर, आज जब तेरी पुरानी तस्वीरों को पलटा मैंने, हंसती है कैसे देखो ये भी मुझे रुला कर, किस्मत ने दिया धोखा और खो दिया तुझे, क्या करूँगा मै अब सारा जहाँ पा कर, दिल की गहराइयों मे कितने उतर गए हो तुम, कोई देख भी नहीं सकता उतनी गहराइयों मे जा कर, जब तुमने कहा मुझसे के मेरे नहीं हो तुम, लगा जैसे मौत चली गयी हो मुझको गले लगा कर.....

उड़ान

मंजिले उन्हें ही मिलती है जिनके सपनो में जान होती है पंखों से कुछ नही होता, हौसलों से उड़न होती है मंजिल तो मील ही जाएगी भटक कर ही सही गुमराह तो वो है जो घर से निकले ही नहीं .....

अब वीकएंड पर भी नहाने लगा हूं !!!

कहाँ थी कमी, और कहाँ था वक़्त, तेरे आने से पहले तेरे चक्कर में ऐ जान-ऐ-जाना, अब काम से वक़्त चुराने लगा हूं … ये कैसा सितम काफिर तेरा मेरे मोबाइल पर कही बुझ न जाये ये चिराग, अब चार्जर भी साथ लेकर आने लगा हूं आनी है दिवाली और दिल सफाई शुरू हुयी मेरे दिल की चली न जाये बत्ती, तुझे दिल में जलाने लगा हूं तेरे बदन से जो खुशबु महके और शमा रंगीन हो कुछ तो भला किया तुने सनम,अब डीओडोरेंट के पैसे बचाने लगा हूं तेरी बातो से फुर्सत कहा और तेरी यादो से वक़्त जी भर के देखू तुझे,इसलिए अब वीकएंड पर भी नहाने लगा हूं अब न कहना के बहुत अमीरी है तेरे मिलने में यहाँ लुट चुका हूं मैं , बस कड़ी कोशिश से गरीबी छुपाने लगा हु मेरी कविता इतनी फर्जी भी होगी,सोचा न था देख तेरी मोहब्बत में मैं,क्या क्या क्या क्रेप गाने लगा हूं 

वो बचपन की यादें आज भी तन्हाई मे खोजता हूँ मै

वो बचपन की यादें आज भी तन्हाई मे खोजता हूँ मै गुम हो जाता हूँ खुद मे जब उसके बारे मे सोचता हूँ मै नए साल पे दोस्तों के साथ क्या पिकनिक खूब मनाई थी छोटे परदे पे बड़ी फ़िल्मी देख के जलेबियाँ खूब खाई थी क्रिकेट खेलने की तो हर पल होती हमारी तैयारी थी कितने डंडे खाए पापा चाचा से उफ़ फिर भी क्या बेकरारी थी दोस्तों की मण्डली निकलती थी साथ साथ हर होली मे सुबह पिचकारियों मे रंग होता शाम गुलाल भरा होता झोली मे दशहरे की तो बात जुदा थी वो मेला कितना प्यारा था मंदिर के पीछे चोर सिपाही,लुका-छुपी उफ़ वो वक़्त हमारा था दीवाली के पटाखे देखकर खुशियों मे पर लग जाते थे कर के परेशान मोहल्ले मे सबको यंहा वंहा पटाखे बहुत जलाते थे बीता बचपन गुज़रा जमाना अब यादों में खुश हो लेने दो न जाने क्यूँ दिल है मेरा जी भर के आज मुझे रो लेने दो... क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है

कुछ अश‍आर ( Kuch Ashaar) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil'),

इलाही ख़ैर वो हरदम नई बेदाद करते हैँ हमेँ तोहमत लगाते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ ये कह कहकर बसर की उम्र हमने क़ैदे उल्फत मेँ वो अब आज़ाद करते हैँ वो अब आज़ाद करते हैँ सितम ऐसा नहीँ देखा जफ़ा ऐसी नहीँ देखी वो चुप रहने को कहते हैँ जो हम फरियाद करते हैँ

पीने पिलाने के सब हैं बहाने

कहाँ  की  मुहब्बत  कहाँ  के  फ़साने पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने ख़ुशी  में   भी   पी  है तू  ग़म  में  भी  पी  है हैं  मस्ती  भरे  ये  मैखाने  के  पैमाने  ...पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने सताए  न  हमको  कभी  याद  इ  माजी चलो  भूल  जाएँ  वो  गुज़रे  ज़माने पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने चलो  अब  तू  गुमनाम  एस  मैखाने  से तुम्हें  दफन  करने  हैं  सब  ग़म  पुराने पीने  पिलाने  के  सब  हैं  बहाने .. सब  हैं  बहाने

उठो धरा के अमर सपूतो ( Utho Dhara Ke Amar Sapooton) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)

उठो धरा के अमर सपूतो पुनः नया निर्माण करो । जन-जन के जीवन में फिर से नई स्फूर्ति, नव प्राण भरो । नया प्रात है, नई बात है, नई किरण है, ज्योति नई । नई उमंगें, नई तरंगे, नई आस है, साँस नई । युग-युग के मुरझे सुमनों में, नई-नई मुसकान भरो । डाल-डाल पर बैठ विहग कुछ नए स्वरों में गाते हैं । गुन-गुन-गुन-गुन करते भौंरे मस्त हुए मँडराते हैं । नवयुग की नूतन वीणा में नया राग, नवगान भरो । कली-कली खिल रही इधर वह फूल-फूल मुस्काया है । धरती माँ की आज हो रही नई सुनहरी काया है । नूतन मंगलमयी ध्वनियों से गुंजित जग-उद्यान करो । सरस्वती का पावन मंदिर यह संपत्ति तुम्हारी है । तुम में से हर बालक इसका रक्षक और पुजारी है । शत-शत दीपक जला ज्ञान के नवयुग का आह्वान करो । उठो धरा के अमर सपूतो, पुनः नया निर्माण करो ।

शोक की संतान (Shok Ki Santaan) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar'),

हृदय छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा। टीस उसे उठती है, जिसका भाग्य खुलता है। वेदना गोद में उठाकर सबको निहाल नहीं करती, जिसका पुण्य प्रबल होता है, वह अपने आसुओं से धुलता है। तुम तो नदी की धारा के साथ दौड़ रहे हो। उस सुख को कैसे समझोगे, जो हमें नदी को देखकर मिलता है। और वह फूल तुम्हें कैसे दिखाई देगा, जो हमारी झिलमिल अंधियाली में खिलता है? हम तुम्हारे लिये महल बनाते हैं तुम हमारी कुटिया को देखकर जलते हो। युगों से हमारा तुम्हारा यही संबंध रहा है। हम रास्ते में फूल बिछाते हैं तुम उन्हें मसलते हुए चलते हो। दुनिया में चाहे जो भी निजाम आए, तुम पानी की बाढ़ में से सुखों को छान लोगे। चाहे हिटलर ही आसन पर क्यों न बैठ जाए, तुम उसे अपना आराध्य मान लोगे। मगर हम? तुम जी रहे हो, हम जीने की इच्छा को तोल रहे हैं। आयु तेजी से भागी जाती है और हम अंधेरे में जीवन का अर्थ टटोल रहे हैं। असल में हम कवि नहीं, शोक की संतान हैं। हम गीत नहीं बनाते, पंक्तियों में वेदना के शिशुओं को जनते हैं। झरने का कलकल, पत्

क्षण भर को क्यों प्यार किया था (Kshan Bhar Ko Kyoon Pyaar Kiya Tha) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर, तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था? ‘यह अधिकार कहाँ से लाया!’ और न कुछ मैं कहने पाया - मेरे अधरों पर निज अधरों का तुमने रख भार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था? वह क्षण अमर हुआ जीवन में, आज राग जो उठता मन में - यह प्रतिध्वनि उसकी जो उर में तुमने भर उद्गार दिया था! क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

इतने ऊँचे उठो ( Itne Unche Utho) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)

इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है। देखो इस सारी दुनिया को एक दृष्टि से सिंचित करो धरा, समता की भाव वृष्टि से जाति भेद की, धर्म-वेश की काले गोरे रंग-द्वेष की ज्वालाओं से जलते जग में इतने शीतल बहो कि जितना मलय पवन है॥ नये हाथ से, वर्तमान का रूप सँवारो नयी तूलिका से चित्रों के रंग उभारो नये राग को नूतन स्वर दो भाषा को नूतन अक्षर दो युग की नयी मूर्ति-रचना में इतने मौलिक बनो कि जितना स्वयं सृजन है॥ लो अतीत से उतना ही जितना पोषक है जीर्ण-शीर्ण का मोह मृत्यु का ही द्योतक है तोड़ो बन्धन, रुके न चिन्तन गति, जीवन का सत्य चिरन्तन धारा के शाश्वत प्रवाह में इतने गतिमय बनो कि जितना परिवर्तन है। चाह रहे हम इस धरती को स्वर्ग बनाना अगर कहीं हो स्वर्ग, उसे धरती पर लाना सूरज, चाँद, चाँदनी, तारे सब हैं प्रतिपल साथ हमारे दो कुरूप को रूप सलोना इतने सुन्दर बनो कि जितना आकर्षण है॥