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Showing posts from May, 2016

प्रेम (Prem) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariaudh')

उमंगों भरा दिल किसी का न टूटे। पलट जायँ पासे मगर जुग न फूटे। कभी संग निज संगियों का न छूटे। हमारा चलन घर हमारा न लूटे। सगों से सगे कर न लेवें किनारा। फटे दिल मगर घर न फूटे हमारा।1। कभी प्रेम के रंग में हम रँगे थे। उसी के अछूते रसों में पगे थे। उसी के लगाये हितों में लगे थे। सभी के हितू थे सभी के सगे थे। रहे प्यार वाले उसी के सहारे। बसा प्रेम ही आँख में था हमारे।2। रहे उन दिनों फूल जैसा खिले हम। रहे सब तरह के सुखों से हिले हम। मिलाये, रहे दूध जल सा मिले हम। बनाते न थे हित हवाई किले हम। लबालब भरा रंगतों में निराला। छलकता हुआ प्रेम का था पियाला।3। रहे बादलों सा बरस रंग लाते। रहे चाँद जैसी छटाएँ दिखाते। छिड़क चाँदनी हम रहे चैन पाते। सदा ही रहे सोत रस का बहाते। कलाएँ दिखा कर कसाले किये कम। उँजाला अँधेरे घरों के रहे हम।4। रहे प्यार का रंग ऐसा चढ़ाते। न थे जानवर जानवरपन दिखाते। लहू-प्यास-वाले, लहू पी न पाते। बड़े तेजश्-पंजे न पंजे चलाते। न था बाघपन बाघ को याद होता। पड़े सामने साँपपन साँप खोता।5। कसर रख न जीकी कसर थी निकलती। बला डाल कर के बला थी न टलती। मसल दिल किसी का, न थी, दाल गलती। बुरे फल