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Showing posts from July, 2015

चलना हमारा काम है ( Chalna Hamara Kaam Hai ) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

गति प्रबल पैरों में भरी  फिर क्यों रहूं दर दर खडा  जब आज मेरे सामने  है रास्ता इतना पडा  जब तक न मंजिल पा सकूँ,  तब तक मुझे न विराम है,  चलना हमारा काम है।  कुछ कह लिया, कुछ सुन लिया  कुछ बोझ अपना बँट गया  अच्छा हुआ, तुम मिल गई  कुछ रास्ता ही कट गया  क्या राह में परिचय कहूँ,  राही हमारा नाम है,  चलना हमारा काम है।  जीवन अपूर्ण लिए हुए  पाता कभी खोता कभी  आशा निराशा से घिरा,  हँसता कभी रोता कभी  गति-मति न हो अवरूद्ध,  इसका ध्यान आठो याम है,  चलना हमारा काम है।  इस विशद विश्व-प्रहार में  किसको नहीं बहना पडा  सुख-दुख हमारी ही तरह,  किसको नहीं सहना पडा  फिर व्यर्थ क्यों कहता फिरूँ,  मुझ पर विधाता वाम है,  चलना हमारा काम है।  मैं पूर्णता की खोज में  दर-दर भटकता ही रहा  प्रत्येक पग पर कुछ न कुछ  रोडा अटकता ही रहा  निराशा क्यों मुझे?  जीवन इसी का नाम है,  चलना हमारा काम है।  साथ में चलते रहे  कुछ बीच ही से फिर गए  गति न जीवन की रूकी  जो गिर गए सो गिर गए  रहे हर दम,  उसी की सफलता अभिराम है,  चलना हमारा काम है।  फकत यह जानता  जो मिट गया वह जी गया मूंदकर पलकें सहज  दो घूँट हँसकर पी गया  सुधा-मिक

दिवंगत पिता के प्रति ( Divangat Pita Ke Prati ) - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (Sarveshwardayal Saxena)

सूरज के साथ-साथ सन्ध्या के मंत्र डूब जाते थे, घंटी बजती थी अनाथ आश्रम में भूखे भटकते बच्चों के लौट आने की, दूर-दूर तक फैले खेतों पर, धुएँ में लिपटे गाँव पर, वर्षा से भीगी कच्ची डगर पर, जाने कैसा रहस्य भरा करुण अन्धकार फैल जाता था, और ऐसे में आवाज़ आती थी पिता तुम्हारे पुकारने की, मेरा नाम उस अंधियारे में बज उठता था, तुम्हारे स्वरों में। मैं अब भी हूँ अब भी है यह रोता हुआ अन्धकार चारों ओर लेकिन कहाँ है तुम्हारी आवाज़ जो मेरा नाम भरकर इसे अविकल स्वरों में बजा दे। 'धक्का देकर किसी को आगे जाना पाप है' अत: तुम भीड़ से अलग हो गए। 'महत्वाकांक्षा ही सब दुखों का मूल है' इसलिए तुम जहाँ थे वहीं बैठ गए। 'संतोष परम धन है' मानकर तुमने सब कुछ लुट जाने दिया। पिता! इन मूल्यों ने तो तुम्हें अनाथ, निराश्रित और विपन्न ही बनाया, तुमसे नहीं, मुझसे कहती है, मृत्यु के समय तुम्हारे निस्तेज मुख पर पड़ती यह क्रूर दारूण छाया। 'सादगी से रहूँगा' तुमने सोचा था अत: हर उत्सव में तुम द्वार पर खड़े रहे। 'झूठ नहीं बोलूँगा' तुमने व्रत लिया था अत:हर गोष्ठी में तुम चित्र से जड़े रहे।

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Kala Kala Me Da Wakht Dasi Majbor Krri Da Kargha Bache Ta Wama Che Shaeen Ye.

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बदनाम रहे बटमार ( Badnam Rahe Batmar ) - गोपाल सिंह नेपाली ( Gopal Singh Nepali )

बदनाम रहे बटमार मगर, घर तो रखवालों ने लूटा मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा दो दिन के रैन बसेरे की,  हर चीज़ चुराई जाती है दीपक तो अपना जलता है,  पर रात पराई होती है गलियों से नैन चुरा लाए तस्वीर किसी के मुखड़े की रह गए खुले भर रात नयन, दिल तो दिलदारों नर लूटा मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा शबनम-सा बचपन उतरा था, तारों की गुमसुम गलियों में थी प्रीति-रीति की समझ नहीं,  तो प्यार मिला था छलियों से बचपन का संग जब छूटा तो नयनों से मिले सजल नयना नादान नये दो नयनों को, नित नये बजारों ने लूटा मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा हर शाम गगन में चिपका दी,  तारों के अक्षर की पाती किसने लिक्खी, किसको लिक्खी,  देखी तो पढ़ी नहीं जाती कहते हैं यह तो किस्मत है धरती के रहनेवालों की पर मेरी किस्मत को तो इन, ठंडे अंगारों ने लूटा मेरी दुल्हन-सी रातों को, नौ लाख सितारों ने लूटा अब जाना कितना अंतर है,  नज़रों के झुकने-झुकने में हो जाती है कितनी दूरी,  थोड़ा-सी रुकने-रुकने में मुझ पर जग की जो नज़र झुकी वह ढाल बनी मेरे आगे मैंने जब नज़र झुकाई तो, फिर मुझे हज़ारों ने ल

नहुष का पतन ( Nahush Ka Patan ) - मैथिलीशरण गुप्त ( Maithilisharan Gupt )

मत्त-सा नहुष चला बैठ ऋषियान में व्याकुल से देव चले साथ में, विमान में पिछड़े तो वाहक विशेषता से भार की अरोही अधीर हुआ प्रेरणा से मार की दिखता है मुझे तो कठिन मार्ग कटना अगर ये बढ़ना है तो कहूँ मैं किसे हटना? बस क्या यही है बस बैठ विधियाँ गढ़ो? अश्व से अडो ना अरे, कुछ तो बढ़ो, कुछ तो बढ़ो बार बार कन्धे फेरने को ऋषि अटके आतुर हो राजा ने सरौष पैर पटके क्षिप्त पद हाय! एक ऋषि को जा लगा सातों ऋषियों में महा क्षोभानल आ जगा भार बहे, बातें सुने, लातें भी सहे क्या हम तु ही कह क्रूर, मौन अब भी रहें क्या हम पैर था या सांप यह, डस गया संग ही पमर पतित हो तु होकर भुंजग ही राजा हतेज हुआ शाप सुनते ही काँप मानो डस गया हो उसे जैसे पिना साँप श्वास टुटने-सी मुख-मुद्रा हुई विकला "हा ! ये हुआ क्या?" यही व्यग्र वाक्य निकला जड़-सा सचिन्त वह नीचा सर करके पालकी का नाल डूबते का तृण धरके शून्य-पट-चित्र धुलता हुआ सा दृष्टि से देखा फिर उसने समक्ष शून्य दृष्टि से दीख पड़ा उसको न जाने क्या समीप सा चौंका एक साथ वह बुझता प्रदीप-सा - “संकट तो संकट, परन्तु यह भय क्या ? दूसरा सृजन नहीं मेरा एक लय क्या ?” सँभला अद्म

अग्निपथ ( Agneepath) - हरिवंश राय 'बच्चन' ( Harivansh Rai 'Bachchan' )

वृक्ष हों भले खड़े, हों घने हों बड़े, एक पत्र छाँह भी, माँग मत, माँग मत, माँग मत, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। तू न थकेगा कभी, तू न रुकेगा कभी, तू न मुड़ेगा कभी, कर शपथ, कर शपथ, कर शपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ। यह महान दृश्य है, चल रहा मनुष्य है, अश्रु श्वेत रक्त से, लथपथ लथपथ लथपथ, अग्निपथ अग्निपथ अग्निपथ।

राखी की चुनौती ( Rakhi Ki Chunauti ) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

बहिन आज फूली समाती न मन में । तड़ित आज फूली समाती न घन में ।। घटा है न झूली समाती गगन में । लता आज फूली समाती न बन में ।। कही राखियाँ है, चमक है कहीं पर, कही बूँद है, पुष्प प्यारे खिले हैं । ये आयी है राखी, सुहाई है पूनो, बधाई उन्हें जिनको भाई मिले हैं ।। मैं हूँ बहिन किन्तु भाई नहीं है । है राखी सजी पर कलाई नहीं है ।। है भादो घटा किन्तु छाई नहीं है । नहीं है खुशी पर रुलाई नहीं है ।। मेरा बंधु माँ की पुकारो को सुनकर- के तैयार हो जेलखाने गया है । छिनी है जो स्वाधीनता माँ की उसको वह जालिम के घर में से लाने गया है ।। मुझे गर्व है किन्तु राखी है सूनी । वह होता, खुशी तो क्या होती न दूनी ? हम मंगल मनावे, वह तपता है धूनी । है घायल हृदय, दर्द उठता है खूनी ।। है आती मुझे याद चित्तौर गढ की, धधकती है दिल में वह जौहर की ज्वाला । है माता-बहिन रो के उसको बुझाती, कहो भाई, तुमको भी है कुछ कसाला ? ।। है, तो बढ़े हाथ, राखी पड़ी है । रेशम-सी कोमल नहीं यह कड़ी है । । अजी देखो लोहे की यह हथकड़ी है ।  इसी प्रण को लेकर बहिन यह खड़ी है ।। आते हो भाई ? पुन पूछती हूँ-- कि माता के बन्धन की है लाज तुमको? -तो बन्द

कर्मवीर ( Karmveer) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ( Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariaudh')

देख कर बाधा विविध, बहु विघ्न घबराते नहीं  रह भरोसे भाग्य के दुख भोग पछताते नहीं  काम कितना ही कठिन हो किन्तु उकताते नहीं  भीड़ में चंचल बने जो वीर दिखलाते नहीं  हो गये एक आन में उनके बुरे दिन भी भले  सब जगह सब काल में वे ही मिले फूले फले ।  आज करना है जिसे करते उसे हैं आज ही  सोचते कहते हैं जो कुछ कर दिखाते हैं वही  मानते जो भी हैं सुनते हैं सदा सबकी कही  जो मदद करते हैं अपनी इस जगत में आप ही  भूल कर वे दूसरों का मुँह कभी तकते नहीं  कौन ऐसा काम है वे कर जिसे सकते नहीं ।  जो कभी अपने समय को यों बिताते हैं नहीं  काम करने की जगह बातें बनाते हैं नहीं  आज कल करते हुए जो दिन गँवाते हैं नहीं  यत्न करने से कभी जो जी चुराते हैं नहीं  बात है वह कौन जो होती नहीं उनके लिए  वे नमूना आप बन जाते हैं औरों के लिए ।  व्योम को छूते हुए दुर्गम पहाड़ों के शिखर  वे घने जंगल जहाँ रहता है तम आठों पहर  गर्जते जल-राशि की उठती हुई ऊँची लहर  आग की भयदायिनी फैली दिशाओं में लपट  ये कँपा सकती कभी जिसके कलेजे को नहीं  भूलकर भी वह नहीं नाकाम रहता है कहीं ।

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा ( Saare Jahan Se Achha Hindositan Hamara ) - इक़बाल (Iqbal)

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा ग़ुर्बत   में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया  आसमाँ का वह संतरी हमारा, वह पासबाँ  हमारा गोदी में खेलती हैं इसकी हज़ारों नदियाँ गुल्शन है जिनके दम से रश्क-ए-जनाँ  हमारा ऐ आब-ए-रूद-ए-गंगा!  वह दिन हैं याद तुझको? उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा मज़्हब नहीं सिखाता  आपस में बैर रखना हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोसिताँ हमारा यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रूमा  सब मिट गए जहाँ से अब तक मगर है बाक़ी नाम-व-निशाँ हमारा कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा इक़्बाल! कोई महरम   अपना नहीं जहाँ में मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ  हमारा!

वर दे वीणावादिनी वर दे ( Var De Vinavadini Var De ) - सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' ( Suryakant Tripathi 'Nirala')

वर दे, वीणावादिनि वर दे ! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे ! काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे ! नव गति, नव लय, ताल-छंद नव नवल कंठ, नव जलद-मन्द्ररव; नव नभ के नव विहग-वृंद को नव पर, नव स्वर दे ! वर दे, वीणावादिनि वर दे।

वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे ( Woh Log Bohat Khush-Kismet The ) - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmed Faiz)

वो लोग बोहत खुश-किस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या काम से आशिकी करते थे हम जीते जी मसरूफ रहे कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया काम इश्क के आड़े आता रहा और इश्क से काम उलझता रहा फिर आखिर तंग आ कर हमने दोनों को अधूरा छोड दिया

बिस्मिल की अन्तिम रचना ( Bismil Ki Antim Rachna) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil')

मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या ! दिल की बर्वादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या ! मिट गईं जब सब उम्मीदें मिट गए जब सब ख़याल , उस घड़ी गर नामावर लेकर पयाम आया तो क्या ! ऐ दिले-नादान मिट जा तू भी कू-ए-यार में , फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या ! काश! अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते , यूँ सरे-तुर्बत कोई महशर-खिराम आया तो क्या ! आख़िरी शब दीद के काबिल थी 'बिस्मिल' की तड़प , सुब्ह-दम कोई अगर बाला-ए-बाम आया तो क्या !

पद्मावती ( Padmavati) - चंदबरदाई ( Chandbardai)

पूरब दिसि गढ गढनपति, समुद-सिषर अति द्रुग्ग। तहँ सु विजय सुर-राजपति, जादू कुलह अभग्ग॥ हसम हयग्गय देस अति, पति सायर म्रज्जाद। प्रबल भूप सेवहिं सकल, धुनि निसाँन बहु साद॥ धुनि निसाँन बहुसाद नाद सुर पंच बजत दिन। दस हजार हय-चढत हेम-नग जटित साज तिन॥ गज असंष गजपतिय मुहर सेना तिय सक्खह। इक नायक, कर धरि पिनाक, घर-भर रज रक्खह।   दस पुत्र पुत्रिय इक्क सम, रथ सुरंग उम्मर-उमर। भंडार लछिय अगनित पदम, सो पद्मसेन कूँवर सुघर॥ पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान । तार उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥ मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय। बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥ बिगसि कमल-सिग्र, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय। हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥ छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ, काम-कामिनि रचिय॥ मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास। पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर, नर, मुनियर पास॥ सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान। जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥ सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास। कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयौ हुलास॥ मन अति भयौ