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Showing posts from May, 2014

गरीबदास का शून्य (Garibdas Ka Shunya ) - अशोक चक्रधर ( Ashok Chakradhar)

घास काटकर नहर के पास, कुछ उदास-उदास सा चला जा रहा था गरीबदास। कि क्या हुआ अनायास... दिखाई दिए सामने दो मुस्टंडे, जो अमीरों के लिए शरीफ़ थे पर ग़रीबों के लिए गुंडे। उनके हाथों में तेल पिए हुए डंडे थे, और खोपड़ियों में हज़ारों हथकण्डे थे। बोले- ओ गरीबदास सुन ! अच्छा मुहूरत है अच्छा सगुन। हम तेरे दलिद्दर मिटाएंगे, ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठाएंगे। गरीबदास डर गया बिचारा, उसने मन में विचारा- इन्होंने गांव की कितनी ही लड़कियां उठा दीं। कितने ही लोग ज़िंदगी से उठा दिए अब मुझे उठाने वाले हैं, आज तो भगवान ही रखवाले हैं। -हां भई गरीबदास चुप क्यों है ? देख मामला यों है कि हम तुझे ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठाएंगे, रेखा नीचे रह जाएगी तुझे ऊपर ले जाएंगे। गरीबदास ने पूछा- कित्ता ऊपर ? -एक बित्ता ऊपर पर घबराता क्यों है ये तो ख़ुशी की बात है, वरना क्या तू और क्या तेरी औक़ात है ? जानता है ग़रीबी की रेखा ? -हजूर हमने तो कभी नहीं देखा। -हं हं, पगले, घास पहले नीचे रख ले। गरीबदास ! तू आदमी मज़े का है, देख सामने देख वो ग़रीबी की रेखा है। -कहां है हजूर ? -वो कहां है हजूर ? -वो देख, सामने बहुत दूर। -सामने तो बंजर धर

विवशता (Vivashtaa) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था। गति मिलि मैं चल पड़ा पथ पर कहीं रुकना मना था, राह अनदेखी, अजाना देश संगी अनसुना था। चाँद सूरज की तरह चलता न जाना रातदिन है, किस तरह हम तुम गए मिल आज भी कहना कठिन है, तन न आया माँगने अभिसार मन ही जुड़ गया था। देख मेरे पंख चल, गतिमय लता भी लहलहाई पत्र आँचल में छिपाए मुख कली भी मुस्कुराई। एक क्षण को थम गए डैने समझ विश्राम का पल पर प्रबल संघर्ष बनकर आ गई आँधी सदलबल। डाल झूमी, पर न टूटी किंतु पंछी उड़ गया था।

हिमालय (Himalaya) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल! युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, निस्सीम व्योम में तान रहा युग से किस महिमा का वितान? कैसी अखंड यह चिर-समाधि? यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान? उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नगपति! मेरे विशाल! ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! पल भर को तो कर दृगुन्मेष! रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल है तड़प रहा पद पर स्वदेश। सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना की अमिय-धार जिस पुण्यभूमि की ओर बही तेरी विगलित करुणा उदार, जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त सीमापति! तू ने की पुकार, ‘पद-दलित इसे करना पीछे पहले ले मेरा सिर उतार।’ उस पुण्यभूमि पर आज तपी! रे, आन पड़ा संकट कराल, व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। मेरे नगपति! मेरे विशाल! कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा कितना मेरा वैभव अशेष! तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? ओ री उदास ग

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं (Main Toofanon Mein Chalne Ka Aadi Hoon) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते.. मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते.. सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं.. मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते.. मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे.. तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो.. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं.. मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं.. हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से.. सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं.. है नहीं स्वीकार दया अपनी भी.. तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो.. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. शर्म के जल से राह सदा सिंचती है.. गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है.. शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है.. मंजिल की मांग लहू से ही सजती है.. पग में गती आती है, छाले छिलने से.. तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो.. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. फूलों से जग आसान नहीं होता है.. रुकने से पग गतीवान नहीं होता है.. अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी.. है नाश जहां निर्मम वहीं हो