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Showing posts from 2014

प्रभु तुम मेरे मन की जानो ( Prabhu Tum Mere Man Ki Jano) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है। किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥ प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी। यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥ इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ। तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥ तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो। जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥ मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ। और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥ मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है। मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥ तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा? हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा? मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती। बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥ कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है। दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥ मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला। यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥ यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक

गरीबदास का शून्य (Garibdas Ka Shunya ) - अशोक चक्रधर ( Ashok Chakradhar)

घास काटकर नहर के पास, कुछ उदास-उदास सा चला जा रहा था गरीबदास। कि क्या हुआ अनायास... दिखाई दिए सामने दो मुस्टंडे, जो अमीरों के लिए शरीफ़ थे पर ग़रीबों के लिए गुंडे। उनके हाथों में तेल पिए हुए डंडे थे, और खोपड़ियों में हज़ारों हथकण्डे थे। बोले- ओ गरीबदास सुन ! अच्छा मुहूरत है अच्छा सगुन। हम तेरे दलिद्दर मिटाएंगे, ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठाएंगे। गरीबदास डर गया बिचारा, उसने मन में विचारा- इन्होंने गांव की कितनी ही लड़कियां उठा दीं। कितने ही लोग ज़िंदगी से उठा दिए अब मुझे उठाने वाले हैं, आज तो भगवान ही रखवाले हैं। -हां भई गरीबदास चुप क्यों है ? देख मामला यों है कि हम तुझे ग़रीबी की रेखा से ऊपर उठाएंगे, रेखा नीचे रह जाएगी तुझे ऊपर ले जाएंगे। गरीबदास ने पूछा- कित्ता ऊपर ? -एक बित्ता ऊपर पर घबराता क्यों है ये तो ख़ुशी की बात है, वरना क्या तू और क्या तेरी औक़ात है ? जानता है ग़रीबी की रेखा ? -हजूर हमने तो कभी नहीं देखा। -हं हं, पगले, घास पहले नीचे रख ले। गरीबदास ! तू आदमी मज़े का है, देख सामने देख वो ग़रीबी की रेखा है। -कहां है हजूर ? -वो कहां है हजूर ? -वो देख, सामने बहुत दूर। -सामने तो बंजर धर

विवशता (Vivashtaa) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार पथ ही मुड़ गया था। गति मिलि मैं चल पड़ा पथ पर कहीं रुकना मना था, राह अनदेखी, अजाना देश संगी अनसुना था। चाँद सूरज की तरह चलता न जाना रातदिन है, किस तरह हम तुम गए मिल आज भी कहना कठिन है, तन न आया माँगने अभिसार मन ही जुड़ गया था। देख मेरे पंख चल, गतिमय लता भी लहलहाई पत्र आँचल में छिपाए मुख कली भी मुस्कुराई। एक क्षण को थम गए डैने समझ विश्राम का पल पर प्रबल संघर्ष बनकर आ गई आँधी सदलबल। डाल झूमी, पर न टूटी किंतु पंछी उड़ गया था।

हिमालय (Himalaya) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल! युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त, युग-युग गर्वोन्नत, नित महान, निस्सीम व्योम में तान रहा युग से किस महिमा का वितान? कैसी अखंड यह चिर-समाधि? यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान? तू महाशून्य में खोज रहा किस जटिल समस्या का निदान? उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नगपति! मेरे विशाल! ओ, मौन, तपस्या-लीन यती! पल भर को तो कर दृगुन्मेष! रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल है तड़प रहा पद पर स्वदेश। सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र, गंगा, यमुना की अमिय-धार जिस पुण्यभूमि की ओर बही तेरी विगलित करुणा उदार, जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त सीमापति! तू ने की पुकार, ‘पद-दलित इसे करना पीछे पहले ले मेरा सिर उतार।’ उस पुण्यभूमि पर आज तपी! रे, आन पड़ा संकट कराल, व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल। मेरे नगपति! मेरे विशाल! कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा कितना मेरा वैभव अशेष! तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर वीरान हुआ प्यारा स्वदेश। वैशाली के भग्नावशेष से पूछ लिच्छवी-शान कहाँ? ओ री उदास ग

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं (Main Toofanon Mein Chalne Ka Aadi Hoon) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. हैं फ़ूल रोकते, काटें मुझे चलाते.. मरुस्थल, पहाड चलने की चाह बढाते.. सच कहता हूं जब मुश्किलें ना होती हैं.. मेरे पग तब चलने मे भी शर्माते.. मेरे संग चलने लगें हवायें जिससे.. तुम पथ के कण-कण को तूफ़ान करो.. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. अंगार अधर पे धर मैं मुस्काया हूं.. मैं मर्घट से ज़िन्दगी बुला के लाया हूं.. हूं आंख-मिचौनी खेल चला किस्मत से.. सौ बार म्रत्यु के गले चूम आया हूं.. है नहीं स्वीकार दया अपनी भी.. तुम मत मुझपर कोई एह्सान करो.. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. शर्म के जल से राह सदा सिंचती है.. गती की मशाल आंधी मैं ही हंसती है.. शोलो से ही श्रिंगार पथिक का होता है.. मंजिल की मांग लहू से ही सजती है.. पग में गती आती है, छाले छिलने से.. तुम पग-पग पर जलती चट्टान धरो.. मैं तूफ़ानों मे चलने का आदी हूं.. तुम मत मेरी मंजिल आसान करो.. फूलों से जग आसान नहीं होता है.. रुकने से पग गतीवान नहीं होता है.. अवरोध नहीं तो संभव नहीं प्रगती भी.. है नाश जहां निर्मम वहीं हो

जलियाँवाला बाग में बसंत (Jallianwala Bagh Mein Basant) - सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

यहाँ कोकिला नहीं, काग हैं, शोर मचाते, काले काले कीट, भ्रमर का भ्रम उपजाते। कलियाँ भी अधखिली, मिली हैं कंटक-कुल से, वे पौधे, व पुष्प शुष्क हैं अथवा झुलसे। परिमल-हीन पराग दाग सा बना पड़ा है, हा! यह प्यारा बाग खून से सना पड़ा है। ओ, प्रिय ऋतुराज! किन्तु धीरे से आना, यह है शोक-स्थान यहाँ मत शोर मचाना। वायु चले, पर मंद चाल से उसे चलाना, दुःख की आहें संग उड़ा कर मत ले जाना। कोकिल गावें, किन्तु राग रोने का गावें, भ्रमर करें गुंजार कष्ट की कथा सुनावें। लाना संग में पुष्प, न हों वे अधिक सजीले, तो सुगंध भी मंद, ओस से कुछ कुछ गीले। किन्तु न तुम उपहार भाव आ कर दिखलाना, स्मृति में पूजा हेतु यहाँ थोड़े बिखराना। कोमल बालक मरे यहाँ गोली खा कर, कलियाँ उनके लिये गिराना थोड़ी ला कर। आशाओं से भरे हृदय भी छिन्न हुए हैं, अपने प्रिय परिवार देश से भिन्न हुए हैं। कुछ कलियाँ अधखिली यहाँ इसलिए चढ़ाना, कर के उनकी याद अश्रु के ओस बहाना। तड़प तड़प कर वृद्ध मरे हैं गोली खा कर, शुष्क पुष्प कुछ वहाँ गिरा देना तुम जा कर। यह सब करना, किन्तु यहाँ मत शोर मचाना, यह है शोक-स्थान बहुत धीर

लेन-देन (Len Den) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

लेन-देन का हिसाब लंबा और पुराना है। जिनका कर्ज हमने खाया था, उनका बाकी हम चुकाने आये हैं। और जिन्होंने हमारा कर्ज खाया था, उनसे हम अपना हक पाने आये हैं। लेन-देन का व्यापार अभी लंबा चलेगा। जीवन अभी कई बार पैदा होगा और कई बार जलेगा। और लेन-देन का सारा व्यापार जब चुक जायेगा, ईश्वर हमसे खुद कहेगा - तुम्हार एक पावना मुझ पर भी है, आओ, उसे ग्रहण करो। अपना रूप छोड़ो, मेरा स्वरूप वरण करो।

मेरा नया बचपन (Mera Naya Bachpan) - सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी। गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी॥ चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद? ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी? बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥ किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया। किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया॥ रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे। बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥ मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया। झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया॥ दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे। धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे॥ वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई। लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥ लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी। तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥ दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी। मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥ मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने। अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने॥ सब गलियाँ उसकी

विदा (Vida) - सुभद्राकुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

अपने काले अवगुंठन को रजनी आज हटाना मत। जला चुकी हो नभ में जो ये दीपक इन्हें बुझाना मत॥ सजनि! विश्व में आज तना रहने देना यह तिमिर वितान। ऊषा के उज्ज्वल अंचल में आज न छिपना अरी सुजान॥ सखि! प्रभात की लाली में छिन जाएगी मेरी लाली। इसीलिए कस कर लपेट लो, तुम अपनी चादर काली॥ किसी तरह भी रोको, रोको, सखि! मुझ निधनी के धन को। आह! रो रहा रोम-रोम फिर कैसे समझाऊँ मन को॥ आओ आज विकलते! जग की पीड़ाएं न्यारी-न्यारी। मेरे आकुल प्राण जला दो, आओ तुम बारी-बारी॥ ज्योति नष्ट कर दो नैनों की, लख न सकूँ उनका जाना। फिर मेरे निष्ठुर से कहना, कर लें वे भी मनमाना॥

वीरों का कैसा हो बसंत (Veeron Ka Kaisa Ho Basant) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

आ रही हिमालय से पुकार है उदधि गजरता बार-बार प्राची पश्चिम भू नभ अपार सब पूछ रहे हैं दिग-दिगंत- वीरों का कैसा हो बसंत फूली सरसों ने दिया रंग मधु लेकर आ पहुँचा अनंग वधु वसुधा पुलकित अंग-अंग है वीर देश में किंतुं कंत- वीरों का कैसा हो वसंत भर रही कोकिला इधर तान मारू बाजे पर उधर गान है रंग और रण का विधान मिलने को आए हैं आदि अंत- वीरों का कैसा हो वसंत गलबाँहें हों या हो कृपाण चलचितवन हो या धनुषबाण हो रसविलास या दलितत्राण अब यही समस्या है दुरंत- वीरों का कैसा हो वसंत कह दे अतीत अब मौन त्याग लंके तुझमें क्यों लगी आग ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग-जाग बतला अपने अनुभव अनंत- वीरों का कैसा हो वसंत हल्दीघाटी के शिला खंड ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड राणा ताना का कर घमंड दो जगा आज स्मृतियाँ ज्वलंत- वीरों का कैसा हो बसंत भूषण अथवा कवि चंद नहीं बिजली भर दे वह छंद नहीं है कलम बँधी स्वच्छंद नहीं फिर हमें बताए कौन? हंत- वीरों का कैसा हो बसंत