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Showing posts from February, 2011

क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है,

क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है , कर दिया दिल से दूर मगर प्यार आज भी है , उनके चेहरे से इन आँखों का रिश्ता बड़ा अजीब है , ... देखे किसी और को लगता वही करीब है , ... दिल मे 1 बैचैनी साँसों मे भी उलझन सी है , ख्वाबों मे उसकी यादें आज भी दुल्हन सी है .

ऐ दोस्त अब तेरे बिना जीना गंवारा ना होगा

ऐ दोस्त अब तेरे बिना जीना गंवारा ना होगा, भूल जाऊं जो नाम 1 पल के लिए तुम्हारा ना होगा, तुम भी कंही अपनी दुनिया बसाओगे फिर से, पर हमारे बिना तुम्हारा भी गुज़ारा ना होगा. तेरी आँखों से भी फिर से बरसातें ही होंगी, जो तेरी आँखों के आगे ये नज़ारा ना होगा, तेरे कानो में गुन्जेंगे ये अल्फाज़ मेरे, इतनी आवाज़ देंगे जितना किसी ने तुझे पुकारा ना होगा. दिल के ज़ज्बातों को कागज़ पर उड़ेलोगे तुम भी, कांपेगी उंगलियाँ और कोई सहारा ना होगा, जब भी मिलेगा कोई ख़त तुझे गुमनामियों मे, ख्याल आएगा मेरा पर वो ख़त हमारा ना होगा.

जब मैं छोटा था, शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी

जब मैं छोटा था , शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी , वो बचपन के खेल , वो हर शाम थक के चूर हो जाना , अब शाम नहीं होती , दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है . शायद वक्त सिमट रहा है .. जब मैं छोटा था , शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी , ... दिन भर वो हुज़ोम बनाकर खेलना , वो दोस्तों के घर का खाना , वो लड़कियों की बातें , वो साथ रोना , अब भी मेरे कई दोस्त हैं , होली , दिवाली , जन्मदिन , नए साल पर बस SMS आ जाते हैं शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं .....

जनतंत्र का जन्म (Jantantra Ka Janam) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता?हां,लंबी – बडी जीभ की वही कसम, “जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।” “सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?” ‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?” मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं; यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते ह