Skip to main content

Posts

Showing posts from January, 2011

एक तिनका (Ek Tinka) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariaudh')

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ, एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा। आ अचानक दूर से उड़ता हुआ, एक तिनका आँख में मेरी पड़ा। मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा, लाल होकर आँख भी दुखने लगी। मूँठ देने लोग कपड़े की लगे, ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी। जब किसी ढब से निकल तिनका गया, तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए। ऐंठता तू किसलिए इतना रहा, एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

सैनिक की मौत (Sainik Ki Maut) - अशोक कुमार पाण्डेय ( Ashok Kumar Pandey)

तीन रंगो के लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा लौट आया है मेरा दोस्त अखबारों के पन्नों और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर भरपूर गौरवान्वित होने के बाद उदास बैठै हैं पिता थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच बार-बार फूट पड़ती है पत्नी कभी-कभी एक किस्से का अंत कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है और किस्सा भी क्या? किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन फिर सपनीली उम्र आते-आते सिमट जाना सारे सपनो का इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग या फिर केवल योग कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी और नौकरी जिंदगी की इसीलिये भरती की भगदड़ में दब जाना महज हादसा है और फंस जाना बारूदी सुरंगो में ’शहादत! बचपन में कुत्तों के डर से रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त आठ को मार कर मरा था बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है? वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त दरअसल उस दिन अखबारों के पहले पन्ने पर दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था और उसी दिन ठीक उसी वक्त देश के सबसे तेज चैनल पर चल रही थी क्रिकेट

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे (Mere Swapn Tumhare Pas Sahara Pane Aayenge) - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते है अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे

सुभाष की मृत्यु पर ( Subhash Ki Mrityu Par) - धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharti)

दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे प्राण तुम्हारे धूमकेतु से चीर गगन पट झीना जिस दिन पहुंचे होंगे देवलोक की सीमाओं पर अमर हो गई होगी आसन से मौत मूर्च्छिता होकर और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना और देवताओं ने ले कर ध्रुव तारों की टेक - छिड़के होंगे तुम पर तरुनाई के खूनी फूल खुद ईश्वर ने चीर अंगूठा अपनी सत्ता भूल उठ कर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिलकुल शांत और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश खोल कफ़न ताका होगा तुमने भारत का भोर।

तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह?( Tumhe Kaise Yaad Karoon Bhagat Singh) - अशोक कुमार पाण्डेय ( Ashok Kumar Pandey)

जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें जिन कारखानों में उगता था तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती है ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत कि कांपी तक नही जबान सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते अभी एक सदी भी नही गुज़री और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने तुम जिन्हें दे गए थे एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब सजाकर रख दी है उन्होंने घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर अपने अपने चश्मे सजाने को तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं अवतार बनने की होड़ में तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह जबकि जानता हूँ की तुम्

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे (Moko Kahan Dhoondho Re Bande) - कबीर (Kabir)

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में ना तीरथ मे ना मूरत में ना एकान्त निवास में ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास में ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं बरत उपास में ना मैं किरिया करम में रहता नहिं जोग सन्यास में नहिं प्राण में नहिं पिंड में ना ब्रह्याण्ड आकाश में ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में नहिं स्वांसों की स्वांस में खोजि होए तुरत मिल जाउं इक पल की तालास में कहत कबीर सुनो भई साधो मैं तो हूं विश्वास में

लगता नहीं है जी मेरा (Lagta Nahin Hai Ji Mera) - बहादुर शाह ज़फ़र (Bahadur Shah Zafar)

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

झाँसी की रानी की समाधि पर (Jhansi Ki Rani ki Samadhi Par) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

इस समाधि में छिपी हुई है, एक राख की ढेरी | जल कर जिसने स्वतंत्रता की, दिव्य आरती फेरी || यह समाधि यह लघु समाधि है, झाँसी की रानी की | अंतिम लीलास्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की || यहीं कहीं पर बिखर गई वह, भग्न-विजय-माला-सी | उसके फूल यहाँ संचित हैं, है यह स्मृति शाला-सी | सहे वार पर वार अंत तक, लड़ी वीर बाला-सी | आहुति-सी गिर चढ़ी चिता पर, चमक उठी ज्वाला-सी | बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से | मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से || रानी से भी अधिक हमे अब, यह समाधि है प्यारी | यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी || इससे भी सुन्दर समाधियाँ, हम जग में हैं पाते | उनकी गाथा पर निशीथ में, क्षुद्र जंतु ही गाते || पर कवियों की अमर गिरा में, इसकी अमिट कहानी | स्नेह और श्रद्धा से गाती, है वीरों की बानी || बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी | खूब लड़ी मरदानी वह थी, झाँसी वाली रानी || यह समाधि यह चिर समाधि है , झाँसी की रानी की | अंतिम लीला स्थली यही है, लक्ष्मी मरदानी की ||

स्वदेश प्रेम (Swadesh Prem) - रामनरेश त्रिपाठी (Ramnaresh Tripathi)

अतुलनीय जिनके प्रताप का, साक्षी है प्रतयक्ष दिवाकर। घूम घूम कर देख चुका है, जिनकी निर्मल किर्ति निशाकर। देख चुके है जिनका वैभव, ये नभ के अनंत तारागण। अगणित बार सुन चुका है नभ, जिनका विजय-घोष रण-गर्जन। शोभित है सर्वोच्च मुकुट से, जिनके दिव्य देश का मस्तक। गूंज रही हैं सकल दिशायें, जिनके जय गीतों से अब तक। जिनकी महिमा का है अविरल, साक्षी सत्य-रूप हिमगिरिवर। उतरा करते थे विमान-दल, जिसके विसतृत वछ-स्थल पर। सागर निज छाती पर जिनके, अगणित अर्णव-पोत उठाकर। पहुंचाया करता था प्रमुदित, भूमंडल के सकल तटों पर। नदियां जिनकी यश-धारा-सी, बहती है अब भी निशी-वासर। ढूढो उनके चरण चिहन भी, पाओगे तुम इनके तट पर। सच्चा प्रेम वही है जिसकी तृपित आत्म-बलि पर हो निर्भर। त्याग बिना निष्प्राण प्रेम है, करो प्रेम पर प्राण निछावर। देश-प्रेम वह पुण्य छेत्र है, अमल असीम त्याग से वि्लसित। आत्मा के विकास से जिसमे, मनुष्यता होती है विकसित।

कोशिश करने वालों की (Koshish Karne Waalon Ki) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है, चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है। मन का विश्वास रगों में साहस भरता है, चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है। आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है, जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है। मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में, बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में। मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो, क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो। जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम, संघर्ष का मैदान छोड़ कर मत भागो तुम। कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।

उस पार न जाने क्या होगा ( Us Par Na Jaane Kya Hoga) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरालहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो, बुलबुल तरु की फुनगी पर से संदेश सुनाती यौवन का, तुम देकर मदिरा के प्याले मेरा मन बहला देती हो, उस पार मुझे बहलाने का उपचार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! जग में रस की नदियाँ बहती, रसना दो बूंदें पाती है, जीवन की झिलमिलसी झाँकी नयनों के आगे आती है, स्वरतालमयी वीणा बजती, मिलती है बस झंकार मुझे, मेरे सुमनों की गंध कहीं यह वायु उड़ा ले जाती है; ऐसा सुनता, उस पार, प्रिये, ये साधन भी छिन जाएँगे; तब मानव की चेतनता का आधार न जाने क्या होगा! इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! प्याला है पर पी पाएँगे, है ज्ञात नहीं इतना हमको, इस पार नियति ने भेजा है, असमर्थबना कितना हमको, कहने वाले, पर कहते है, हम कर्मों में स्वाधीन सदा, करने वालों की परवशता है ज्ञात किसे, जितनी हमको? कह तो सकते हैं, कहकर ही कुछ दिल हलका कर लेते हैं, उस पार अभागे मानव का अधिकार

मेरा कुछ सामान ( Mera Kuch Saman) - गुलज़ार (Gulzar)

जब भी यह दिल उदास होता है जाने कौन आस-पास होता है होंठ चुपचाप बोलते हों जब सांस कुछ तेज़-तेज़ चलती हो आंखें जब दे रही हों आवाज़ें ठंडी आहों में सांस जलती हो आँख में तैरती हैं तसवीरें तेरा चेहरा तेरा ख़याल लिए आईना देखता है जब मुझको एक मासूम सा सवाल लिए कोई वादा नहीं किया लेकिन क्यों तेरा इंतजार रहता है बेवजह जब क़रार मिल जाए दिल बड़ा बेकरार रहता है जब भी यह दिल उदास होता है जाने कौन आस-पास होता है

यह कदंब का पेड़ (Yeh Kadamb Ka Ped) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

यह कदंब का पेड़ अगर माँ होता यमुना तीरे मैं भी उस पर बैठ कन्हैया बनता धीरे-धीरे ले देतीं यदि मुझे बांसुरी तुम दो पैसे वाली किसी तरह नीची हो जाती यह कदंब की डाली तुम्हें नहीं कुछ कहता पर मैं चुपके-चुपके आता उस नीची डाली से अम्मा ऊँचे पर चढ़ जाता वहीं बैठ फिर बड़े मजे से मैं बांसुरी बजाता अम्मा-अम्मा कह वंशी के स्वर में तुम्हे बुलाता सुन मेरी बंसी को माँ तुम इतनी खुश हो जाती मुझे देखने काम छोड़कर तुम बाहर तक आती तुमको आता देख बाँसुरी रख मैं चुप हो जाता पत्तों मे छिपकर धीरे से फिर बाँसुरी बजाता गुस्सा होकर मुझे डाटती, कहती "नीचे आजा" पर जब मैं ना उतरता, हँसकर कहती, "मुन्ना राजा" "नीचे उतरो मेरे भईया तुंझे मिठाई दूँगी, नये खिलौने, माखन-मिसरी, दूध मलाई दूँगी" बहुत बुलाने पर भी माँ जब नहीं उतर कर आता माँ, तब माँ का हृदय तुम्हारा बहुत विकल हो जाता तुम आँचल फैला कर अम्मां वहीं पेड़ के नीचे ईश्वर से कुछ विनती करतीं बैठी आँखें मीचे तुम्हें ध्यान में लगी देख मैं धीरे-धीरे आता और तुम्हारे फैले आँचल के नीचे छिप जाता तुम घबरा कर आँख खोलतीं, पर माँ खुश हो जाती जब अपने मु

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार (Phir Koi Aaya Dil-e-Zar) - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmed Faiz)

फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार,नहीं कोई नहीं राहरव होगा, कहीं और चला जाएगा ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार लड़खडाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़ सो गई रास्ता तक तक के हर एक रहगुज़र अजनबी ख़ाक ने धुंधला दिए कदमों के सुराग़ गुल करो शम'एं, बढ़ाओ मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़ अपने बेख़्वाब किवाडों को मुकफ़्फ़ल कर लो अब यहाँ कोई नहीं , कोई नहीं आएगा... शब्दार्थ दिल-ए-ज़ार = व्याकुलदिल राहरव = पथिक एवानों = महलों मय-ओ-मीना-ओ-अयाग़ = मदिरा और सुरापात्र उठा लो मुकफ़्फ़ल = ताले लगा दो

ढूँढते रह जाओगे (Dhoondhte Reh Jaoge) - अरुण जैमिनी (Arun Jaimini)

चीज़ों में कुछ चीज़ें बातों में कुछ बातें वो होंगी जिन्हे कभी ना देख पाओगे इक्कीसवीं सदी में ढूँढते रह जाओगे बच्चों में बचपन जवानी में यौवन शीशों में दर्पण जीवन में सावन गाँव में अखाड़ा शहर में सिंघाड़ा टेबल की जगह पहाड़ा और पायजामे में नाड़ा ढूँढते रह जाओगे चूड़ी भरी कलाई शादी में शहनाई आँखों में पानी दादी की कहानी प्यार के दो पल नल नल में जल तराजू में बट्टा और लड़कियों का दुपट्टा ढूँढते रह जाओगे गाता हुआ गाँव बरगद की छाँव किसान का हल मेहनत का फल चहकता हुआ पनघट लम्बा लम्बा घूँघट लज्जा से थरथराते होंठ और पहलवान का लंगोट ढूँढते रह जाओगे आपस में प्यार भरा पूरा परिवार नेता ईमानदार दो रुपये उधार सड़क किनारे प्याऊ संबेधन में चाचा ताऊ परोपकारी बंदे और अरथी को कंधे ढूँढते रह जाओगे

शहीदों की चिताओं पर ( Shaheedon Ki Chitaon Par) - जगदंबा प्रसाद मिश्र ‘हितैषी’ ( Jagdamba Prasad Mishra 'Hitaishi')

उरूजे कामयाबी पर कभी हिन्दोस्ताँ होगा रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा चखाएँगे मज़ा बर्बादिए गुलशन का गुलचीं को बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजरे क़ातिल पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़ न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा वतन की आबरू का पास देखें कौन करता है सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तिहाँ होगा शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा