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Showing posts from November, 2010

तुम गये चितचोर् (Tum Gaye Chitchor) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

स्वप्न्-सज्जित प्यार मेरा, कल्पना का तार मेरा, एक क्षण मे मधुर निषठुर् तुम गये झकझोर्! तुम गये चितचोर्! हाय! जाना ही तुम्हे था, यो' रुलाना ही तुम्हे था, तुम गये प्रिय, पर गये क्यो' नही' ह्रदय मरोर्! तुम गये चितचोर्! लुट गया सर्वस्व मेरा, नयन मे' इतना अन्धेरा, घोर निशि मे' भी चमकती है नयन की कोर्! तुम गये चितचोर्!

व्यंग्य (Vyangya) - शैल चतुर्वेदी (Shail Chaturvedi)

हमनें एक बेरोज़गार मित्र को पकड़ा और कहा, "एक नया व्यंग्य लिखा है, सुनोगे?" तो बोला, "पहले खाना खिलाओ।" खाना खिलाया तो बोला, "पान खिलाओ।" पान खिलाया तो बोला, "खाना बहुत बढ़िया था उसका मज़ा मिट्टी में मत मिलाओ। अपन ख़ुद ही देश की छाती पर जीते-जागते व्यंग्य हैं हमें व्यंग्य मत सुनाओ जो जन-सेवा के नाम पर ऐश करता रहा और हमें बेरोज़गारी का रोजगार देकर कुर्सी को कैश करता रहा। व्यंग्य उस अफ़सर को सुनाओ जो हिन्दी के प्रचार की डफली बजाता रहा और अपनी औलाद को अंग्रेज़ी का पाठ पढ़ाता रहा। व्यंग्य उस सिपाही को सुनाओ जो भ्रष्टाचार को अपना अधिकार मानता रहा और झूठी गवाही को पुलिस का संस्कार मानता रहा। व्यंग्य उस डॉक्टर को सुनाओ जो पचास रूपये फ़ीस के लेकर मलेरिया को टी०बी० बतलाता रहा और नर्स को अपनी बीबी बतलाता रहा। व्यंग्य उस फ़िल्मकार को सुनाओ जो फ़िल्म में से इल्म घटाता रहा और संस्कृति के कपड़े उतार कर सेंसर को पटाता रहा। व्यंग्य उस सास को सुनाओ जिसने बेटी जैसी बहू को ज्वाला का उपहार दिया और व्यंग्य उस वासना के कीड़े को सुनाओ जिसने अपनी भूख मिटाने के लिए नारी को बा

वीर तुम बढ़े चलो (Veer Tum Badhe Chalo) - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी (Dwarika Prasad Maheshwari)

वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो ! हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो ! सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो ! प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो ! एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो ! अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो वीर तुम बढ़े चलो ! धीर तुम बढ़े चलो !

झाला का बलिदान (Jhala Ka Balidan) -

दानव समाज में अरुण पड़ा जल जन्तु बीच हो वरुण पड़ा इस तरह भभकता था राणा मानो सर्पो में गरुड़ पड़ा हय रुण्ड कतर, गज मुण्ड पाछ अरि व्यूह गले पर फिरती थी तलवार वीर की तड़प तड़प क्षण क्षण बिजली सी गिरती थी राणा कर ने सर काट काट दे दिए कपाल कपाली को शोणित की मदिरा पिला पिला कर दिया तुष्ट रण काली को पर दिन भर लड़ने से तन में चल रहा पसीना था तर तर अविरल शोणित की धारा थी राणा क्षत से बहती झर झर घोड़ा भी उसका शिथिल बना था उसको चैन ना घावों से वह अधिक अधिक लड़ता यद्दपि दुर्लभ था चलना पावों से तब तक झाला ने देख लिया राणा प्रताप है संकट में बोला न बाल बांका होगा जब तक हैं प्राण बचे घट में अपनी तलवार दुधारी ले भूखे नाहर सा टूट पड़ा कल कल मच गया अचानक दल अश्विन के घन सा फूट पड़ा राणा की जय, राणा की जय वह आगे बढ़ता चला गया राणा प्रताप की जय करता राणा तक चढ़ता चला गया रख लिया छत्र अपने सर पर राणा प्रताप मस्तक से ले ले सवर्ण पताका जूझ पड़ा रण भीम कला अंतक से ले झाला को राणा जान मुगल फिर टूट पड़े थे झाला पर मिट गया वीर जैसे मिटता परवाना दीपक ज्वाला पर झाला ने राणा रक्षा की रख दिया देश के पानी को छोड़ा

कारवां गुज़र गया (Karwan Guzar Gaya) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से, लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से, और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे! नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई, पाँव जब तलक उठे कि ज़िन्दगी फिसल गई, पात-पात झर गये कि शाख़-शाख़ जल गई, चाह तो निकल सकी न, पर उमर निकल गई, गीत अश्क़ बन गए, छंद हो दफ़न गए, साथ के सभी दिऐ धुआँ-धुआँ पहन गये, और हम झुके-झुके, मोड़ पर रुके-रुके उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा, क्या सुरूप था कि देख आइना मचल उठा इस तरफ जमीन और आसमां उधर उठा, थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा, एक दिन मगर यहाँ, ऐसी कुछ हवा चली, लुट गयी कली-कली कि घुट गयी गली-गली, और हम लुटे-लुटे, वक्त से पिटे-पिटे, साँस की शराब का खुमार देखते रहे कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे। हाथ थे मिले कि जुल्फ चाँद की सँवार दूँ, होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ, दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ, और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ, हो सका न कुछ मगर, शाम बन गई सहर, वह उठी लहर कि दह गये किले बिखर-बिखर, और हम डर

पद्मावती-नागमती-सती-खंड - पद्मावत (Padmavati - Nagmati - Sati Khand - Padmavat )मलिक मोहम्मद जायसी (Malik Mohammed Jayasi)

पदमावति पुनि पहिरि पटोरी । चली साथ पिउ के होइ जोरी ॥ सूरुज छपा, रैनि होइ गई । पूनो-ससि सो अमावस भई ॥ छोरे केस, मोति लर छूटीं । जानहुँ रैनि नखत सब टूटीं ॥ सेंदुर परा जो सीस अघारा । आगि लागि चह जग अँधियारा ॥ यही दिवस हौं चाहति, नाहा । चलौं साथ, पिउ ! देइ गलबाहाँ ॥ सारस पंखि न जियै निनारे । हौं तुम्ह बिनु का जिऔं, पियारे ॥ नेवछावरि कै तन छहरावौं । छार होउँ सँग, बहुरि न आवौं ॥ दीपक प्रीति पतँग जेउँ जनम निबाह करेउँ । नेवछावरि चहुँ पास होइ कंठ लागि जिउ देउँ ॥1॥ नागमती पदमावति रानी । दुवौ महा सत सती बखानी ॥ दुवौ सवति चढि खाट बईठीं । औ सिवलोक परा तिन्ह दीठी ॥ बैठौ कोइ राज औ पाटा । अंत सबै बैठे पुनि खाटा ॥ चंदन अगर काठ सर साजा । औ गति देइ चले लेइ राजा ॥ बाजन बाजहिं होइ अगूता । दुवौ कंत लेइ चाहहिं सूता ॥ एक जो बाजा भएउ बियाहू । अब दुसरे होइ ओर-निबाहू ॥ जियत जो जरै कंत के आसा । मुएँ रहसि बैठे एक पासा ॥ आजु सूर दिन अथवा, आजु रेनि ससि बूड । आजु नाचि जिउ दीजिय, आजु आगि हम्ह जूड ॥2॥ सर रचि दान पुन्नि बहु कीन्हा । सात बार फिरि भाँवरि लीन्हा ॥ एक जो भाँवरि भईं बियाही । अब दुसरे होइ गोहन जाहीं ॥ जियत, क

करि की चुराई चाल, सिंह को चुरायो कटि (Kari Ki Churayi Chal, Singh Ko Churayo Kati) - बेनी (Beni)

करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक दूध को चुरायो रंग, नासा चोरी कीर की पिक को चुरायो बैन, मृग को चुरायो नैन दसन अनार, हाँसी बीजुरी गँभीर की कहे कवे ‘बेनी’ बेनी व्याल की चुराय लीनी रति रति सोभा सब रति के सरीर की अब तो कन्हैया जी को चित हू चुराय लीनो चोरटी है गोरटी या छोरटी अहीर की

क्योंकि सपना है अभी भी (Kyonki Sapna Hai Abhi Bhi) - धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharti)

...क्योंकि सपना है अभी भी इसलिए तलवार टूटी अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धुंध धूमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ...क्योंकि सपना है अभी भी! तोड़ कर अपने चतुर्दिक का छलावा जब कि घर छोड़ा, गली छोड़ी, नगर छोड़ा कुछ नहीं था पास बस इसके अलावा विदा बेला, यही सपना भाल पर तुमने तिलक की तरह आँका था (एक युग के बाद अब तुमको कहां याद होगा?) किन्तु मुझको तो इसी के लिए जीना और लड़ना है धधकती आग में तपना अभी भी ....क्योंकि सपना है अभी भी! तुम नहीं हो, मैं अकेला हूँ मगर वह तुम्ही हो जो टूटती तलवार की झंकार में या भीड़ की जयकार में या मौत के सुनसान हाहाकार में फिर गूंज जाती हो और मुझको ढाल छूटे, कवच टूटे हुए मुझको फिर तड़प कर याद आता है कि सब कुछ खो गया है - दिशाएं, पहचान, कुंडल,कवच लेकिन शेष हूँ मैं, युद्धरत् मैं, तुम्हारा मैं तुम्हारा अपना अभी भी इसलिए, तलवार टूटी, अश्व घायल कोहरे डूबी दिशाएं कौन दुश्मन, कौन अपने लोग, सब कुछ धूंध धुमिल किन्तु कायम युद्ध का संकल्प है अपना अभी भी ... क्योंकि सपना है अभी भी!

चल गयी (Chal Gayi) - शैल चतुर्वेदी (Shail Chaturvedi)

वैसे तो एक शरीफ इंसान हूँ आप ही की तरह श्रीमान हूँ मगर अपनी आंख से बहुत परेशान हूँ अपने आप चलती है लोग समझते हैं -- चलाई गई है जान-बूझ कर मिलाई गई है। एक बार बचपन में शायद सन पचपन में क्लास में एक लड़की बैठी थी पास में नाम था सुरेखा उसने हमें देखा और बांई चल गई लड़की हाय-हाय क्लास छोड़ बाहर निकल गई। थोड़ी देर बाद हमें है याद प्रिंसिपल ने बुलाया लंबा-चौड़ा लेक्चर पिलाया हमने कहा कि जी भूल हो गई वो बोल - ऐसा भी होता है भूल में शर्म नहीं आती ऐसी गंदी हरकतें करते हो, स्कूल में? और इससे पहले कि हकीकत बयान करते कि फिर चल गई प्रिंसिपल को खल गई। हुआ यह परिणाम कट गया नाम बमुश्किल तमाम मिला एक काम। इंटरव्यूह में, खड़े थे क्यू में एक लड़की थी सामने अड़ी अचानक मुड़ी नजर उसकी हम पर पड़ी और आंख चल गई लड़की उछल गई दूसरे उम्मीदवार चौंके उस लडकी की साईड लेकर हम पर भौंके फिर क्या था मार-मार जूते-चप्पल फोड़ दिया बक्कल सिर पर पांव रखकर भागे लोग-बाग पीछे, हम आगे घबराहट में घुस गये एक घर में भयंकर पीड़ा थी सिर में बुरी तरह हांफ रहे थे मारे डर के कांप रहे थे तभी पूछा उस गृहणी ने -- कौन ? हम खड़े रहे मौन वो ब