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Showing posts from October, 2010

और भी दूँ (Aur Bhi Doon) - रामावतार त्यागी (Ram Avtar Tyagi)

मन समर्पित, तन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ मॉं तुम्हारा ऋण बहुत है, मैं अकिंचन किंतु इतना कर रहा, फिर भी निवेदन थाल में लाऊँ सजाकर भाल में जब भी कर दया स्वीकार लेना यह समर्पण गान अर्पित, प्राण अर्पित रक्त का कण-कण समर्पित चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ मॉंज दो तलवार को, लाओ न देरी बॉंध दो कसकर, कमर पर ढाल मेरी भाल पर मल दो, चरण की धूल थोड़ी शीश पर आशीष की छाया धनेरी स्वप्न अर्पित, प्रश्न अर्पित आयु का क्षण-क्षण समर्पित। चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ तोड़ता हूँ मोह का बंधन, क्षमा दो गॉंव मेरी, द्वार-घर मेरी, ऑंगन, क्षमा दो आज सीधे हाथ में तलवार दे-दो और बाऍं हाथ में ध्‍वज को थमा दो सुमन अर्पित, चमन अर्पित नीड़ का तृण-तृण समर्पित चहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूँ

कौन क्या-क्या खाता है ( Kaun Kya - Kya Khata Hai) - काका हाथरसी ( Kaka Hathrasi)

कौन क्या-क्या खाता है ? खान-पान की कृपा से, तोंद हो गई गोल, रोगी खाते औषधी, लड्डू खाएँ किलोल। लड्डू खाएँ किलोल, जपें खाने की माला, ऊँची रिश्वत खाते, ऊँचे अफसर आला। दादा टाइप छात्र, मास्टरों का सर खाते, लेखक की रायल्टी, चतुर पब्लिशर खाते। दर्प खाय इंसान को, खाय सर्प को मोर, हवा जेल की खा रहे, कातिल-डाकू-चोर। कातिल-डाकू-चोर, ब्लैक खाएँ भ्रष्टाजी, बैंक-बौहरे-वणिक, ब्याज खाने में राजी। दीन-दुखी-दुर्बल, बेचारे गम खाते हैं, न्यायालय में बेईमान कसम खाते हैं। सास खा रही बहू को, घास खा रही गाय, चली बिलाई हज्ज को, नौ सौ चूहे खाय। नौ सौ चूहे खाय, मार अपराधी खाएँ, पिटते-पिटते कोतवाल की हा-हा खाएँ। उत्पाती बच्चे, चच्चे के थप्पड़ खाते, छेड़छाड़ में नकली मजनूँ, चप्पल खाते। सूरदास जी मार्ग में, ठोकर-टक्कर खायं, राजीव जी के सामने मंत्री चक्कर खायं। मंत्री चक्कर खायं, टिकिट तिकड़म से लाएँ, एलेक्शन में हार जायं तो मुँह की खाएँ। जीजाजी खाते देखे साली की गाली, पति के कान खा रही झगड़ालू घरवाली। मंदिर जाकर भक्तगण खाते प्रभू प्रसाद, चुगली खाकर आ रहा चुगलखोर को स्वाद। चुगलखोर को स्वाद, देंय साहब परमीशन, कंट्रै

आभार (Aabhar) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद जीवन अस्थिर अनजाने ही, हो जाता पथ पर मेल कहीं, सीमित पग डग, लम्बी मंज़िल, तय कर लेना कुछ खेल नहीं दाएँ-बाएँ सुख-दुख चलते, सम्मुख चलता पथ का प्रमाद जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद साँसों पर अवलम्बित काया, जब चलते-चलते चूर हुई, दो स्नेह-शब्द मिल गये, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई पथ के पहचाने छूट गये, पर साथ-साथ चल रही याद जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद जो साथ न मेरा दे पाये, उनसे कब सूनी हुई डगर? मैं भी न चलूँ यदि तो क्या, राही मर लेकिन राह अमर इस पथ पर वे ही चलते हैं, जो चलने का पा गये स्वाद जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद कैसे चल पाता यदि न मिला होता मुझको आकुल अंतर? कैसे चल पाता यदि मिलते, चिर-तृप्ति अमरता-पूर्ण प्रहर! आभारी हूँ मैं उन सबका, दे गये व्यथा का जो प्रसाद जिस-जिस से पथ पर स्नेह मिला, उस-उस राही को धन्यवाद

भीख माँगते शर्म नहीं आती (Bheekh Mangte Sharm Nahin Aati) - शैल चतुर्वेदी (Shail Chaturvedi)

लोकल ट्रेन से उतरते ही हमने सिगरेट जलाने के लिए एक साहब से माचिस माँगी, तभी किसी भिखारी ने हमारी तरफ हाथ बढ़ाया, हमने कहा- "भीख माँगते शर्म नहीं आती?" ओके, वो बोला- "माचिस माँगते आपको आयी थी क्‍या?" बाबूजी! माँगना देश का करेक्‍टर है, जो जितनी सफ़ाई से माँगे उतना ही बड़ा एक्‍टर है, ये भिखारियों का देश है लीजिए! भिखारियों की लिस्‍ट पेश है, धंधा माँगने वाला भिखारी चंदा माँगने वाला दाद माँगने वाला औलाद माँगने वाला दहेज माँगने वाला नोट माँगने वाला और तो और वोट माँगने वाला हमने काम माँगा तो लोग कहते हैं चोर है, भीख माँगी तो कहते हैं, कामचोर है, उनमें कुछ नहीं कहते, जो एक वोट के लिए , दर-दर नाक रगड़ते हैं, घिस जाने पर रबर की खरीद लाते हैं, और उपदेशों की पोथियाँ खोलकर, महंत बन जाते हैं। लोग तो एक बिल्‍ले से परेशान हैं, यहाँ सैकड़ों बिल्‍ले खरगोश की खाल में देश के हर कोने में विराजमान हैं। हम भिखारी ही सही , मगर राजनीति समझते हैं , रही अख़बार पढ़ने की बात तो अच्‍छे-अच्‍छे लोग , माँग कर पढ़ते हैं, समाचार तो समाचार , लोग बाग पड़ोसी से , अचार तक माँग लाते हैं, रहा विचार! तो व

आग जलती रहे (Aag Jalti Rahe) - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

एक तीखी आँच ने इस जन्म का हर पल छुआ, आता हुआ दिन छुआ हाथों से गुजरता कल छुआ हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा, फूल-पत्ती, फल छुआ जो मुझे छूने चली हर उस हवा का आँचल छुआ ... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता आग के संपर्क से दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में मैं उबलता रहा पानी-सा परे हर तर्क से एक चौथाई उमर यों खौलते बीती बिना अवकाश सुख कहाँ यों भाप बन-बन कर चुका, रीता, भटकता छानता आकाश आह! कैसा कठिन ... कैसा पोच मेरा भाग! आग चारों और मेरे आग केवल भाग! सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई, पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई, वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप! अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

पुष्प की अभिलाषा (Pushp Ki Abhilasha) - माखनलाल चतुर्वेदी ( Makhanlal Chaturvedi)

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ, चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ, चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ चाह नहीं, देवों के शिर पर, चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ! मुझे तोड़ लेना वनमाली! उस पथ पर देना तुम फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।

दशरथ विलाप (Dashrath Vilap) - भारतेंदु हरिश्चंद्र (Bhartendu Harishchandra)

कहाँ हौ ऐ हमारे राम प्यारे। किधर तुम छोड़कर मुझको सिधारे॥ बुढ़ापे में ये दु:ख भी देखना था। इसी के देखने को मैं बचा था॥ छिपाई है कहाँ सुन्दर वो मूरत। दिखा दो साँवली-सी मुझको सूरत॥ छिपे हो कौन-से परदे में बेटा। निकल आवो कि अब मरता हु बुड्ढा॥ बुढ़ापे पर दया जो मेरे करते। तो बन की ओर क्यों तुम पर धरते॥ किधर वह बन है जिसमें राम प्यारा। अजुध्या छोड़कर सूना सिधारा॥ गई संग में जनक की जो लली है। इसी में मुझको और बेकली है॥ कहेंगे क्या जनक यह हाल सुनकर। कहाँ सीता कहाँ वह बन भयंकर॥ गया लछमन भी उसके साथ-ही-साथ। तड़पता रह गया मैं मलते ही हाथ॥ मेरी आँखों की पुतली कहाँ है। बुढ़ापे की मेरी लकड़ी कहाँ है॥ कहाँ ढूँढ़ौं मुझे कोई बता दो। मेरे बच्चो को बस मुझसे मिला दो॥ लगी है आग छाती में हमारे। बुझाओ कोई उनका हाल कह के॥ मुझे सूना दिखाता है ज़माना। कहीं भी अब नहीं मेरा ठिकाना॥ अँधेरा हो गया घर हाय मेरा। हुआ क्या मेरे हाथों का खिलौना॥ मेरा धन लूटकर के कौन भागा। भरे घर को मेरे किसने उजाड़ा॥ हमारा बोलता तोता कहाँ है। अरे वह राम-सा बेटा कहाँ है॥ कमर टूटी, न बस अब उठ सकेंगे। अरे बिन राम के रो-रो मरेंगे॥ कोई कुछ

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के (Hum Panchhi Unmukt Gagan Ke) - शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ (Shivmangal Singh 'Suman')

हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे, कनक-तीलियों से टकराकर पुलकित पंख टूट जाऍंगे। हम बहता जल पीनेवाले मर जाऍंगे भूखे-प्‍यासे, कहीं भली है कटुक निबोरी कनक-कटोरी की मैदा से, स्‍वर्ण-श्रृंखला के बंधन में अपनी गति, उड़ान सब भूले, बस सपनों में देख रहे हैं तरू की फुनगी पर के झूले। ऐसे थे अरमान कि उड़ते नील गगन की सीमा पाने, लाल किरण-सी चोंचखोल चुगते तारक-अनार के दाने। होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ा-होड़ी, या तो क्षितिज मिलन बन जाता या तनती सॉंसों की डोरी। नीड़ न दो, चाहे टहनी का आश्रय छिन्‍न-भिन्‍न कर डालो, लेकिन पंख दिए हैं, तो आकुल उड़ान में विघ्‍न न डालों।

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले (Hazaaron Khwaishein Aisi Ki Har Khwaish Pe Dam Nikle) - मिर्जा गालिब (Mirza Ghalib)

हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले बहुत निकले मेरे अरमाँ, लेकिन फिर भी कम निकले डरे क्यों मेरा कातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर वो खून जो चश्म-ऐ-तर से उम्र भर यूं दम-ब-दम निकले निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये हैं लेकिन बहुत बे-आबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले भ्रम खुल जाये जालीम तेरे कामत कि दराजी का अगर इस तुर्रा-ए-पुरपेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले मगर लिखवाये कोई उसको खत तो हमसे लिखवाये हुई सुबह और घर से कान पर रखकर कलम निकले हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा-आशामी फिर आया वो जमाना जो जहाँ से जाम-ए-जम निकले हुई जिनसे तव्वको खस्तगी की दाद पाने की वो हमसे भी ज्यादा खस्ता-ए-तेग-ए-सितम निकले मुहब्बत में नहीं है फ़र्क जीने और मरने का उसी को देख कर जीते हैं जिस काफिर पे दम निकले जरा कर जोर सिने पर कि तीर-ऐ-पुरसितम निकले जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले खुदा के बासते पर्दा ना काबे से उठा जालिम कहीं ऐसा न हो याँ भी वही काफिर सनम निकले कहाँ मयखाने का दरवाजा 'गालिब' और कहाँ वाइज़ पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था के हम निकले

हिमाद्रि तुंग शृंग से (Himadri Trung Shrung Se) - जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)

हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती स्वयं प्रभा समुज्ज्वला स्वतंत्रता पुकारती 'अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़- प्रतिज्ञ सोच लो, प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो, बढ़े चलो!' असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी सपूत मातृभूमि के- रुको न शूर साहसी! अराति सैन्य सिंधु में, सुवाड़वाग्नि से जलो, प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो, बढ़े चलो!

कर्ण और कृष्ण का संवाद (Karna Aur Krishna Ka Samvad) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, फिर कहा "बड़ी यह माया है, जो कुछ आपने बताया है दिनमणि से सुनकर वही कथा मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा "मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ, कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकाल धाराओं में धर आती है, अथवा जीवित दफनाती है? "सेवती मास दस तक जिसको, पालती उदर में रख जिसको, जीवन का अंश खिलाती है, अन्तर का रुधिर पिलाती है आती फिर उसको फ़ेंक कहीं, नागिन होगी वह नारि नहीं "हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, इस पर न अधिक कुछ भी कहिये सुनना न चाहते तनिक श्रवण, जिस माँ ने मेरा किया जनन वह नहीं नारि कुल्पाली थी, सर्पिणी परम विकराली थी "पत्थर समान उसका हिय था, सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था गोदी में आग लगा कर के, मेरा कुल-वंश छिपा कर के दुश्मन का उसने काम किया, माताओं को बदनाम किया "माँ का पय भी न पीया मैंने, उलटे अभिशाप लिया मैंने वह तो यशस्विनी बनी रही, सबकी भौ मुझ पर तनी रही कन्या वह रही अपरिणीता, जो कुछ बीता, मुझ पर बीता "मैं जाती गोत्र से दीन, हीन, राजाओं के सम्मुख मलीन, जब रोज अनादर पाता था, कह

शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो (Sheeshon Ka Maseeha Koi Nahin Kya Aas Lagaye Baithe Ho) - फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (Faiz Ahmed Faiz)

मोती हो कि शीशा, जाम कि दुर जो टूट गया सो टूट गया कब अश्कों से जुड़ सकता है जो टूट गया, सो छूट गया तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर दामन में छुपाए बैठे हो शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो शायद कि इन्हीं टुकड़ों में कहीं वो साग़रे-दिल है जिसमें कभी सद नाज़ से उतरा करती थी सहबाए-गमें-जानां की परी फिर दुनिया वालों ने तुम से ये सागर लेकर फोड़ दिया जो मय थी बहा दी मिट्टी में मेहमान का शहपर तोड़ दिया ये रंगी रेजे हैं शाहिद उन शोख बिल्लूरी सपनों के तुम मस्त जवानी में जिन से खल्वत को सजाया करते थे नादारी, दफ्तर, भूख और गम इन सपनों से टकराते रहे बेरहम था चौमुख पथराओ ये कांच के ढ़ांचे क्या करते या शायद इन जर्रों में कहीं मोती है तुम्हारी इज्जत का वो जिस से तुम्हारे इज्ज़ पे भी शमशादक़दों ने नाज़ किया उस माल की धुन में फिरते थे ताजिर भी बहुत रहजन भी बहुत है चोरनगर, यां मुफलिस की गर जान बची तो आन गई ये सागर शीशे, लालो- गुहर सालम हो तो कीमत पाते हैं यूँ टुकड़े टुकड़े हों तो फकत चुभते हैं, लहू रुलवाते हैं तुम नाहक टुकड़े चुन चुन कर दामन में छुपाए बैठे हो शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो याद

हैफ हम जिसपे की तैयार थे मर जाने को (Haif Hum Jispe Ki Tayaar The Mar Jane Ko) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil')

हैफ हम जिसपे की तैयार थे मर जाने को जीते जी हमने छुड़ाया उसी कशाने को क्या ना था और बहाना कोई तडपाने को आसमां क्या यही बाकी था सितम ढाने को लाके गुरबत में जो रखा हमें तरसाने को फिर ना गुलशन में हमें लायेगा शायद कभी याद आयेगा किसे ये दिल-ऐ-नाशाद कभी क्यों सुनेगा तु हमारी कोई फरियाद कभी हम भी इस बाग में थे कैद से आजाद कभी अब तो काहे को मिलेगी ये हवा खाने को दिल फिदा करते हैं क़ुरबान जिगर करते हैं पास जो कुछ है वो माता की नज़र करते हैं खाना वीरान कहाँ देखिए घर करते हैं खुश रहो अहल-ए-वतन, हम तो सफ़र करते हैं जाके आबाद करेंगे किसी वीराने को ना मयस्सर हुआ राहत से कभिइ मेल हमें जान पर खेल के भाया ना कोइ खेल हमें एक दिन क्या भी ना मंज़ूर हुआ बेल हमें याद आएगा अलिपुर का बहुत जेल हमें लोग तो भूल गये होंगे उस अफ़साने को अंडमान खाक तेरी क्यूँ ना हो दिल में नाज़ां छके चरणों को जो पिंगले के हुई है ज़ीशान मरतबा इतना बढ़े तेरी भी तक़दीर कहाँ आते आते जो रहे ‘बाल तिलक’ भी मेहमां ‘मंडाले’ को ही यह आइज़ाज़ मिला पाने को बात तो जब है की इस बात की ज़िद्दे थानें देश के वास्ते क़ुरबान करें हम जानें लाख समझा

न चाहूँ मान (Na Chahoon Maan) - राम प्रसाद 'बिस्मिल' (Ram Prasad 'Bismil')

न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना मुझे वर दे यही माता रहूँ भारत पे दीवाना करुँ मैं कौम की सेवा पडे़ चाहे करोड़ों दुख अगर फ़िर जन्म लूँ आकर तो भारत में ही हो आना लगा रहे प्रेम हिन्दी में, पढूँ हिन्दी लिखुँ हिन्दी चलन हिन्दी चलूँ, हिन्दी पहरना, ओढना खाना भवन में रोशनी मेरे रहे हिन्दी चिरागों की स्वदेशी ही रहे बाजा, बजाना, राग का गाना लगें इस देश के ही अर्थ मेरे धर्म, विद्या, धन करुँ मैं प्राण तक अर्पण यही प्रण सत्य है ठाना नहीं कुछ गैर-मुमकिन है जो चाहो दिल से "बिस्मिल" तुम उठा लो देश हाथों पर न समझो अपना बेगाना

जीवन की आपाधापी में (Jeevan Ki Aapadhapi Mein) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में, हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा, आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा? फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में, क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा, जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी, जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला, जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला। मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था, मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी, जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी, उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी, जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा, उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे, क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है, यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी; अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया, वह

को‌ई गाता मैं सो जाता (Koi Gaata Main So Jaata) - हरिवंश राय 'बच्चन' (Harivansh Rai 'Bachchan')

संस्रिति के विस्तृत सागर में सपनो की नौका के अंदर दुख सुख कि लहरों मे उठ गिर बहता जाता, मैं सो जाता । आँखों में भरकर प्यार अमर आशीष हथेली में भरकर को‌ई मेरा सिर गोदी में रख सहलाता, मैं सो जाता । मेरे जीवन का खाराजल मेरे जीवन का हालाहल को‌ई अपने स्वर में मधुमय कर बरसाता मैं सो जाता । को‌ई गाता मैं सो जाता मैं सो जाता मैं सो जाता

गिरिराज ( Giriraj) - सोहनलाल द्विवेदी (Sohanlal Dwivedi)

यह है भारत का शुभ्र मुकुट यह है भारत का उच्च भाल, सामने अचल जो खड़ा हुआ हिमगिरि विशाल, गिरिवर विशाल! कितना उज्ज्वल, कितना शीतल कितना सुन्दर इसका स्वरूप? है चूम रहा गगनांगन को इसका उन्नत मस्तक अनूप! है मानसरोवर यहीं कहीं जिसमें मोती चुगते मराल, हैं यहीं कहीं कैलास शिखर जिसमें रहते शंकर कृपाल! युग युग से यह है अचल खड़ा बनकर स्वदेश का शुभ्र छत्र! इसके अँचल में बहती हैं गंगा सजकर नवफूल पत्र! इस जगती में जितने गिरि हैं सब झुक करते इसको प्रणाम, गिरिराज यही, नगराज यही जननी का गौरव गर्व–धाम! इस पार हमारा भारत है, उस पार चीन–जापान देश मध्यस्थ खड़ा है दोनों में एशिया खंड का यह नगेश!

यह है भारत देश हमारा ( Yeh Hai Bharat Desh Hamara) - सुब्रह्मण्यम भारती ( Subrahmanyam Bharti)

चमक रहा उत्तुंग हिमालय, यह नगराज हमारा ही है। जोड़ नहीं धरती पर जिसका, वह नगराज हमारा ही है। नदी हमारी ही है गंगा, प्लावित करती मधुरस धारा, बहती है क्या कहीं और भी, ऎसी पावन कल-कल धारा? सम्मानित जो सकल विश्व में, महिमा जिनकी बहुत रही है अमर ग्रन्थ वे सभी हमारे, उपनिषदों का देश यही है। गाएँगे यश ह्म सब इसका, यह है स्वर्णिम देश हमारा, आगे कौन जगत में हमसे, यह है भारत देश हमारा। यह है भारत देश हमारा, महारथी कई हुए जहाँ पर, यह है देश मही का स्वर्णिम, ऋषियों ने तप किए जहाँ पर, यह है देश जहाँ नारद के, गूँजे मधुमय गान कभी थे, यह है देश जहाँ पर बनते, सर्वोत्तम सामान सभी थे। यह है देश हमारा भारत, पूर्ण ज्ञान का शुभ्र निकेतन, यह है देश जहाँ पर बरसी, बुद्धदेव की करुणा चेतन, है महान, अति भव्य पुरातन, गूँजेगा यह गान हमारा, है क्या हम-सा कोई जग में, यह है भारत देश हमारा। विघ्नों का दल चढ़ आए तो, उन्हें देख भयभीत न होंगे, अब न रहेंगे दलित-दीन हम, कहीं किसी से हीन न होंगे, क्षुद्र स्वार्थ की ख़ातिर हम तो, कभी न ओछे कर्म करेंगे, पुण्यभूमि यह भारत माता, जग की हम तो भीख न लेंगे। मिसरी-मधु-मेवा-फल सारे, द