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Showing posts from September, 2010

राणा प्रताप की तलवार (Rana Pratap Ki Talwar) - श्यामनारायण पाण्डेय (Shyamnarayan Pandey)

चढ़ चेतक पर तलवार उठा, रखता था भूतल पानी को। राणा प्रताप सिर काट काट, करता था सफल जवानी को॥ कलकल बहती थी रणगंगा, अरिदल को डूब नहाने को। तलवार वीर की नाव बनी, चटपट उस पार लगाने को॥ वैरी दल को ललकार गिरी, वह नागिन सी फुफकार गिरी। था शोर मौत से बचो बचो, तलवार गिरी तलवार गिरी॥ पैदल, हयदल, गजदल में, छप छप करती वह निकल गई। क्षण कहाँ गई कुछ पता न फिर, देखो चम-चम वह निकल गई॥ क्षण इधर गई क्षण उधर गई, क्षण चढ़ी बाढ़ सी उतर गई। था प्रलय चमकती जिधर गई, क्षण शोर हो गया किधर गई॥ लहराती थी सिर काट काट, बलखाती थी भू पाट पाट। बिखराती अवयव बाट बाट, तनती थी लोहू चाट चाट॥ क्षण भीषण हलचल मचा मचा, राणा कर की तलवार बढ़ी। था शोर रक्त पीने को यह, रण-चंडी जीभ पसार बढ़ी॥

खूनी हस्‍ताक्षर ( Khooni Hastakshar) - गोपालप्रसाद व्यास (Gopalprasad Vyas)

वह खून कहो किस मतलब का जिसमें उबाल का नाम नहीं। वह खून कहो किस मतलब का आ सके देश के काम नहीं। वह खून कहो किस मतलब का जिसमें जीवन, न रवानी है! जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है! उस दिन लोगों ने सही-सही खून की कीमत पहचानी थी। जिस दिन सुभाष ने बर्मा में मॉंगी उनसे कुरबानी थी। बोले, "स्वतंत्रता की खातिर बलिदान तुम्हें करना होगा। तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा। आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी। वह सुनो, तुम्हारे शीशों के फूलों से गूँथी जाएगी। आजादी का संग्राम कहीं पैसे पर खेला जाता है? यह शीश कटाने का सौदा नंगे सर झेला जाता है" यूँ कहते-कहते वक्ता की आंखों में खून उतर आया! मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा दमकी उनकी रक्तिम काया! आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले, "रक्त मुझे देना। इसके बदले भारत की आज़ादी तुम मुझसे लेना।" हो गई सभा में उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे। स्वर इनकलाब के नारों के कोसों तक छाए जाते थे। “हम देंगे-देंगे खून” शब्द बस यही सुनाई देते थे। रण में जाने को युवक खड़े तैयार दिखाई देते थे। बोले सुभाष, "इस तरह नहीं, बातों से मतलब स

है प्रीत जहाँ की रीत सदा ( Hai Preet Jahan Ki Reet Sada) - इंदीवर (Indeevar)

जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने, दुनिया को तब गिनती आई तारों की भाषा भारत ने, दुनिया को पहले सिखलाई देता ना दशमलव भारत तो, यूँ चाँद पे जाना मुश्किल था धरती और चाँद की दूरी का, अंदाज़ लगाना मुश्किल था सभ्यता जहाँ पहले आई, पहले जनमी है जहाँ पे कला अपना भारत वो भारत है, जिसके पीछे संसार चला संसार चला और आगे बढ़ा, ज्यूँ आगे बढ़ा, बढ़ता ही गया भगवान करे ये और बढ़े, बढ़ता ही रहे और फूले-फले है प्रीत जहाँ की रीत सदा, मैं गीत वहाँ के गाता हूँ भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ काले-गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है कुछ और न आता हो हमको, हमें प्यार निभाना आता है जिसे मान चुकी सारी दुनिया, मैं बात वही दोहराता हूँ भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ जीते हो किसीने देश तो क्या, हमने तो दिलों को जीता है जहाँ राम अभी तक है नर में, नारी में अभी तक सीता है इतने पावन हैं लोग जहाँ, मैं नित-नित शीश झुकाता हूँ भारत का रहने वाला हूँ, भारत की बात सुनाता हूँ इतनी ममता नदियों को भी, जहाँ माता कहके बुलाते है इतना आदर इन्सान तो क्या, पत्थर भी पूजे जातें है उस धरती पे मैंने जन्म लिया, ये

नेता जी लगे मुस्कुराने ( Neta Ji Lage Muskurane) - अशोक चक्रधर ( Ashok Chakradhar)

एक महा विद्यालय में नए विभाग के लिए नया भवन बनवाया गया, उसके उद्घाटनार्थ विद्यालय के एक पुराने छात्र लेकिन नए नेता को बुलवाया गया। अध्यापकों ने कार के दरवाज़े खोले नेती जी उतरते ही बोले— यहां तर गईं कितनी ही पीढ़ियां, अहा ! वही पुरानी सीढ़ियां ! वही मैदान वही पुराने वृक्ष, वही कार्यालय वही पुराने कक्ष। वही पुरानी खिड़की वही जाली, अहा, देखिए वही पुराना माली। मंडरा रहे थे यादों के धुंधलके थोड़ा और आगे गए चल के— वही पुरानी चिमगादड़ों की साउण्ड, वही घंटा वही पुराना प्लेग्राउण्ड। छात्रों में वही पुरानी बदहवासी, अहा, वही पुराना चपरासी। नमस्कार, नमस्कार ! अब आया हॉस्टल का द्वार— हॉस्टल में वही कमरे वही पुराना ख़ानसामा, वही धमाचौकड़ी वही पुराना हंगामा। नेता जी पर पुरानी स्मृतियां छा रही थीं, तभी पाया कि एक कमरे से कुछ ज़्यादा ही आवाज़ें आ रही थीं। उन्होंने दरवाजा खटखटाया, लड़के ने खोला पर घबराया। क्योंकि अंदर एक कन्या थी, वल्कल-वसन-वन्या थी। दिल रह गया दहल के, लेकिन बोला संभल के— आइए सर ! मेरा नाम मदन है, इससे मिलिए मेरी कज़न है। नेता जी लगे मुस्कुराने

पृथ्वीराज रासो ( Prithviraj Raso) - चंदबरदाई ( Chandbardai)

पद्मसेन कूँवर सुघर ताघर नारि सुजान। ता उर इक पुत्री प्रकट, मनहुँ कला ससभान॥ मनहुँ कला ससभान कला सोलह सो बन्निय। बाल वैस, ससि ता समीप अम्रित रस पिन्निय॥ बिगसि कमल-स्रिग, भ्रमर, बेनु, खंजन, म्रिग लुट्टिय। हीर, कीर, अरु बिंब मोति, नष सिष अहि घुट्टिय॥ छप्पति गयंद हरि हंस गति, बिह बनाय संचै सँचिय। पदमिनिय रूप पद्मावतिय, मनहुँ काम-कामिनि रचिय॥ मनहुँ काम-कामिनि रचिय, रचिय रूप की रास। पसु पंछी मृग मोहिनी, सुर नर, मुनियर पास॥ सामुद्रिक लच्छिन सकल, चौंसठि कला सुजान। जानि चतुर्दस अंग खट, रति बसंत परमान॥ सषियन संग खेलत फिरत, महलनि बग्ग निवास। कीर इक्क दिष्षिय नयन, तब मन भयो हुलास॥ मन अति भयौ हुलास, बिगसि जनु कोक किरन-रबि। अरुन अधर तिय सुघर, बिंबफल जानि कीर छबि॥ यह चाहत चष चकित, उह जु तक्किय झरंप्पि झर। चंचु चहुट्टिय लोभ, लियो तब गहित अप्प कर॥ हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय। पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय॥ तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल। चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥ कीर कुंवरि तन निरषि दिषि, नष सिष लौं यह रूप। करता करी बनाय कै, यह पद्मिनी सरूप॥ कुट्टिल क

अर्जुन की प्रतिज्ञा ( Arjun Ki Pratigya) - मैथिलीशरण गुप्त ( Maithilisharan Gupt)

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उसका लगा, मानों हवा के वेग से सोता हुआ सागर जगा । मुख-बाल-रवि-सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ, प्रलयार्थ उनके मिस वहाँ क्या काल ही क्रोधित हुआ ? युग-नेत्र उनके जो अभी थे पूर्ण जल की धार-से, अब रोश के मारे हुए, वे दहकते अंगार-से । निश्चय अरुणिमा-मिस अनल की जल उठी वह ज्वाल ही, तब तो दृगों का जल गया शोकाश्रु जल तत्काल ही । साक्षी रहे संसार करता हूँ प्रतिज्ञा पार्थ मैं, पूरा करूँगा कार्य सब कथानुसार यथार्थ मैं । जो एक बालक को कपट से मार हँसते हैँ अभी, वे शत्रु सत्वर शोक-सागर-मग्न दीखेंगे सभी । अभिमन्यु-धन के निधन से कारण हुआ जो मूल है, इससे हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है, उस खल जयद्रथ को जगत में मृत्यु ही अब सार है, उन्मुक्त बस उसके लिये रौख नरक का द्वार है । उपयुक्त उस खल को न यद्यपि मृत्यु का भी दंड है, पर मृत्यु से बढ़कर न जग में दण्ड और प्रचंड है । अतएव कल उस नीच को रण-मघ्य जो मारूँ न मैं, तो सत्य कहता हूँ कभी शस्त्रास्त्र फिर धारूँ न मैं । अथवा अधिक कहना वृथा है, पार्थ का प्रण है यही, साक्षी रहे सुन ये बचन रवि, शशि, अनल, अंबर, मही । सूर्यास्त से पहले

लोहे के पेड़ हरे होंगे ( Lohe Ke Ped Hare Honge) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गान प्रेम का गाता चल, नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आँसू के कण बरसाता चल सिसकियों और चीत्कारों से, जितना भी हो आकाश भरा, कंकालों क हो ढेर, खप्परों से चाहे हो पटी धरा आशा के स्वर का भार, पवन को लेकिन, लेना ही होगा, जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा। रंगो के सातों घट उँड़ेल, यह अँधियारी रँग जायेगी, ऊषा को सत्य बनाने को जावक नभ पर छितराता चल आदर्शों से आदर्श भिड़े, प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही। प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, धरती की किस्मत फूट रही आवर्तों का है विषम जाल, निरुपाय बुद्धि चकराती है, विज्ञान-यान पर चढी हुई सभ्यता डूबने जाती है जब-जब मस्तिष्क जयी होता, संसार ज्ञान से चलता है, शीतलता की है राह हृदय, तू यह संवाद सुनाता चल सूरज है जग का बुझा-बुझा, चन्द्रमा मलिन-सा लगता है, सब की कोशिश बेकार हुई, आलोक न इनका जगता है, इन मलिन ग्रहों के प्राणों में कोई नवीन आभा भर दे, जादूगर! अपने दर्पण पर घिसकर इनको ताजा कर दे दीपक के जलते प्राण, दिवाली तभी सुहावन होती है, रोशनी जगत् को देने को अपनी अस्थियाँ जलाता चल क्या उन्हें देख विस्मित होना, जो हैं अलमस्त बहारो

भारत महिमा ( Bharat Mahima) - जयशंकर प्रसाद (Jaishankar Prasad)

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार । उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।। जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक । व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।। विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत । सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।। बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत । अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।। सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास । पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।। सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह । दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।। धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद । हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।। विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम । भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम । यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि । मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।। किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं । हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं

रोटी और स्वाधीनता ( Roti Aur Swadheenta) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ? मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ? आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं, पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं। हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले, पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले। इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ? है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ? झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ? आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ? है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी, बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ( Phir Kar Lene Do Pyaar Priye) - दुष्यंत कुमार ( Dushyant Kumar)

अब अंतर में अवसाद नहीं चापल्य नहीं उन्माद नहीं सूना-सूना सा जीवन है कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं तव स्वागत हित हिलता रहता अंतरवीणा का तार प्रिये .. इच्छाएँ मुझको लूट चुकी आशाएं मुझसे छूट चुकी सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ मेरे हाथों से टूट चुकी खो बैठा अपने हाथों ही मैं अपना कोष अपार प्रिये फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..

जीवन नहीं मरा करता है ( Jeevan Nahin Mara Karta Hai ) - गोपालदास 'नीरज'(Gopaldas 'Neeraj')

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है सपना क्या है, नयन सेज पर सोया हुआ आँख का पानी और टूटना है उसका ज्यों जागे कच्ची नींद जवानी गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है माला बिखर गयी तो क्या है खुद ही हल हो गयी समस्या आँसू गर नीलाम हुए तो समझो पूरी हुई तपस्या रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर केवल जिल्द बदलती पोथी जैसे रात उतार चांदनी पहने सुबह धूप की धोती वस्त्र बदलकर आने वालों! चाल बदलकर जाने वालों! चन्द खिलौनों के खोने से बचपन नहीं मरा करता है। लाखों बार गगरियाँ फूटीं, शिकन न आई पनघट पर, लाखों बार किश्तियाँ डूबीं, चहल-पहल वो ही है तट पर, तम की उमर बढ़ाने वालों! लौ की आयु घटाने वालों! लाख करे पतझर कोशिश पर उपवन नहीं मरा करता है। लूट लिया माली ने उपवन, लुटी न लेकिन गन्ध फूल की, तूफानों तक ने छेड़ा पर, खिड़की बन्द न हुई धूल की, नफरत गले लगाने वालों! सब पर धूल उड़ाने वालों! कुछ मुखड़ों की नाराज़

चेतक की वीरता ( Chetak Ki Veerta) - श्यामनारायण पाण्डेय (Shyamnarayan Pandey)

Special thanks to Raj Gurjar because of whom we have the complete poem.  बकरों से बाघ लड़े¸ भिड़ गये सिंह मृग–छौनों से। घोड़े गिर पड़े गिरे हाथी¸ पैदल बिछ गये बिछौनों से।।1।। हाथी से हाथी जूझ पड़े¸ भिड़ गये सवार सवारों से। घोड़ों पर घोड़े टूट पड़े¸ तलवार लड़ी तलवारों से।।2।। हय–रूण्ड गिरे¸ गज–मुण्ड गिरे¸ कट–कट अवनी पर शुण्ड गिरे। लड़ते–लड़ते अरि झुण्ड गिरे¸ भू पर हय विकल बितुण्ड गिरे।।3।। क्षण महाप्रलय की बिजली सी¸ तलवार हाथ की तड़प–तड़प। हय–गज–रथ–पैदल भगा भगा¸ लेती थी बैरी वीर हड़प।।4।। क्षण पेट फट गया घोड़े का¸ हो गया पतन कर कोड़े का। भू पर सातंक सवार गिरा¸ क्षण पता न था हय–जोड़े का।।5।। चिंग्घाड़ भगा भय से हाथी¸ लेकर अंकुश पिलवान गिरा। झटका लग गया¸ फटी झालर¸ हौदा गिर गया¸ निशान गिरा।।6।। कोई नत–मुख बेजान गिरा¸ करवट कोई उत्तान गिरा। रण–बीच अमित भीषणता से¸ लड़ते–लड़ते बलवान गिरा।।7।। होती थी भीषण मार–काट¸ अतिशय रण से छाया था भय। था हार–जीत का पता नहीं¸ क्षण इधर विजय क्षण उधर विजय।।8   कोई व्याकुल भर आह रहा¸ कोई था विकल कराह रहा। लोहू से लथपथ लोथों पर¸ कोई चिल्ला अल्लाह रहा।।9।। धड़ कह

अपनी आजादी को हम हर्गिज़ मिटा सकते नही ( Apni Aazaadi Ko Hum Hargiz Mita Sakte Nahin) - शकील बदायूनी ( Shakeel Badayuni)

अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं हमने सदियों में ये आज़ादी की नेमत पाई है सैंकड़ों कुर्बानियाँ देकर ये दौलत पाई है मुस्कुरा कर खाई हैं सीनों पे अपने गोलियां कितने वीरानो से गुज़रे हैं तो जन्नत पाई है ख़ाक में हम अपनी इज्ज़़त को मिला सकते नहीं अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं... क्या चलेगी ज़ुल्म की अहले-वफ़ा के सामने आ नहीं सकता कोई शोला हवा के सामने लाख फ़ौजें ले के आए अमन का दुश्मन कोई रुक नहीं सकता हमारी एकता के सामने हम वो पत्थर हैं जिसे दुश्मन हिला सकते नहीं अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं... वक़्त की आवाज़ के हम साथ चलते जाएंगे हर क़दम पर ज़िन्दगी का रुख बदलते जाएंगे ’गर वतन में भी मिलेगा कोई गद्दारे वतन अपनी ताकत से हम उसका सर कुचलते जाएंगे एक धोखा खा चुके हैं और खा सकते नहीं अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं... हम वतन के नौजवाँ है हम से जो टकरायेगा वो हमारी ठोकरों से ख़ाक में मिल जायेगा वक़्त के तूफ़ान में बह जाएंगे ज़ुल्मो-सितम आसमां पर ये तिरंगा उम्र भर लहरायेगा जो सबक बापू ने सिखलाया भुला सकते नहीं सर कटा सक

जो बीत गई सो बात गई ( Jo Beet Gayi So Baat Gayi)

जीवन में एक सितारा था माना वह बेहद प्यारा था वह डूब गया तो डूब गया अंबर के आंगन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फ़िर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अंबर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में वह था एक कुसुम थे उस पर नित्य निछावर तुम वह सूख गया तो सूख गया मधुबन की छाती को देखो सूखी कितनी इसकी कलियाँ मुरझाईं कितनी वल्लरियाँ जो मुरझाईं फ़िर कहाँ खिलीं पर बोलो सूखे फूलों पर कब मधुबन शोर मचाता है जो बीत गई सो बात गई जीवन में मधु का प्याला था तुमने तन मन दे डाला था वह टूट गया तो टूट गया मदिरालय का आंगन देखो कितने प्याले हिल जाते हैं गिर मिट्टी में मिल जाते हैं जो गिरते हैं कब उठते हैं पर बोलो टूटे प्यालों पर कब मदिरालय पछताता है जो बीत गई सो बात गई मृदु मिट्टी के बने हुए हैं मधु घट फूटा ही करते हैं लघु जीवन ले कर आए हैं प्याले टूटा ही करते हैं फ़िर भी मदिरालय के अन्दर मधु के घट हैं,मधु प्याले हैं जो मादकता के मारे हैं वे मधु लूटा ही करते हैं वह कच्चा पीने वाला है जिसकी ममता घट प्यालों पर जो सच्चे मधु से जला हुआ कब रोता है चिल्लाता है जो बीत गई सो बात गई

कृष्ण की चेतावनी (Krishna Ki Chetawani) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

वर्षों तक वन में घूम घूम बाधा विघ्नों को चूम चूम सह धूप घाम पानी पत्थर पांडव आये कुछ और निखर सौभाग्य न सब दिन होता है देखें आगे क्या होता है मैत्री की राह दिखाने को सब को सुमार्ग पर लाने को दुर्योधन को समझाने को भीषण विध्वंस बचाने को भगवान हस्तिनापुर आए पांडव का संदेशा लाये दो न्याय अगर तो आधा दो पर इसमें भी यदि बाधा हो तो दे दो केवल पाँच ग्राम रखो अपनी धरती तमाम हम वहीँ खुशी से खायेंगे परिजन पे असी ना उठाएंगे दुर्योधन वह भी दे ना सका आशीष समाज की न ले सका उलटे हरि को बाँधने चला जो था असाध्य साधने चला जब नाश मनुज पर छाता है पहले विवेक मर जाता है हरि ने भीषण हुँकार किया अपना स्वरूप विस्तार किया डगमग डगमग दिग्गज डोले भगवान कुपित हो कर बोले जंजीर बढ़ा अब साध मुझे हां हां दुर्योधन बाँध मुझे ये देख गगन मुझमे लय है ये देख पवन मुझमे लय है मुझमे विलीन झनकार सकल मुझमे लय है संसार सकल अमरत्व फूलता है मुझमे संहार झूलता है मुझमे भूतल अटल पाताल देख गत और अनागत काल देख ये देख जगत का आदि सृजन ये देख महाभारत का रन मृतकों से पटी हुई भू है पहचान कहाँ इसमें तू है अंबर का कुंतल जाल देख पद के नीचे पाताल देख

पोल-खोलक यंत्र (Pol Kholak Yantra)

ठोकर खाकर हमने जैसे ही यंत्र को उठाया, मस्तक में शूं-शूं की ध्वनि हुई कुछ घरघराया। झटके से गरदन घुमाई, पत्नी को देखा अब यंत्र से पत्नी की आवाज़ आई- मैं तो भर पाई! सड़क पर चलने तक का तरीक़ा नहीं आता, कोई भी मैनर या सली़क़ा नहीं आता। बीवी साथ है यह तक भूल जाते हैं, और भिखमंगे नदीदों की तरह चीज़ें उठाते हैं। ....इनसे इनसे तो वो पूना वाला इंजीनियर ही ठीक था, जीप में बिठा के मुझे शॉपिंग कराता इस तरह राह चलते ठोकर तो न खाता। हमने सोचा- यंत्र ख़तरनाक है! और ये भी एक इत्तेफ़ाक़ है कि हमको मिला है, और मिलते ही पूना वाला गुल खिला है। और भी देखते हैं क्या-क्या गुल खिलते हैं? अब ज़रा यार-दोस्तों से मिलते हैं। तो हमने एक दोस्त का दरवाज़ा खटखटाया द्वार खोला, निकला, मुस्कुराया, दिमाग़ में होने लगी आहट कुछ शूं-शूं कुछ घरघराहट। यंत्र से आवाज़ आई- अकेला ही आया है, अपनी छप्पनछुरी, गुलबदन को नहीं लाया है। प्रकट में बोला- ओहो! कमीज़ तो बड़ी फ़ैन्सी है! और सब ठीक है? मतलब, भाभीजी कैसी हैं? हमने कहा- भा...भी....जी या छप्पनछुरी गुलबदन? वो बोला- होश की दवा करो श्रीमन्‌ क्या अण्ट-शण्ट बकते हो, भाभीजी के लिए कैस

झाँसी की रानी (Jhansi Ki Rani) - सुभद्रा कुमारी चौहान (Subhadra Kumari Chauhan)

सिंहासन हिल उठे राजवंषों ने भृकुटी तनी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सब ने मन में ठनी थी. चमक उठी सन सत्तावन में, यह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. कानपुर के नाना की मुह बोली बहन छब्बिली थी, लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वो संतान अकेली थी, नाना के सॅंग पढ़ती थी वो नाना के सॅंग खेली थी बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी, उसकी यही सहेली थी. वीर शिवाजी की गाथाएँ उसकी याद ज़बानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वो स्वयं वीरता की अवतार, देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार, नकली युध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार, सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना यह थे उसके प्रिय खिलवाड़. महाराष्‍ट्रा-कुल-देवी उसकी भी आराध्या भवानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी. हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में, ब्याह हुआ बन आई रानी लक्ष्मी बाई झाँ

सरफ़रोशी की तमन्ना (Sarfaroshi ki Tamanna) - बिस्मिल अज़ीमाबादी ( Bismil Azimabadi )

सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है ऐ वतन, करता नहीं क्यूँ दूसरी कुछ बातचीत, देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार, अब तेरी हिम्मत का चरचा ग़ैर की महफ़िल में है सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान, हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद, आशिकों का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है है लिए हथियार दुश्मन ताक में बैठा उधर, और हम तैयार हैं सीना लिए अपना इधर. ख़ून से खेलेंगे होली अगर वतन मुश्क़िल में है सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है हाथ, जिन में है जूनून, कटते नही तलवार से, सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से. और भड़केगा जो शोला सा हमारे दिल में है, सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न, जाँ हथेली पर लिए लो बढ चले हैं ये कदम. ज़िंदगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है यूँ खड़ा मक़्तल मे

How this blog came about

I am not a poet or aspiring to become one. I wasn't an exceptional student of Hindi in my school life and struggled with the kavya saundaryas and the bhav saundaryas that the CBSE syllabus enforced upon me. I was more than glad when Hindi ceased to exist as an academic subject in my life. But recently I discovered, and when I say discovered I really mean it, that I had a lot of Hindi poetry inside me. I was trying to explain to someone that Hindi had these things called alankars which are the equivalent of the similes and metaphors that you find in English and found to my own huge astonishment, that I remembered most of the various kinds of alankars and managed to give examples of almost all of them. This epiphany got me going and I was up until way beyond midnight, deep diving into various rather unknown parts of my brain and coming out with other hindi poetry related stuff. There was a lot of Googling as well and at the end of it all, I was convinced that all the years of studyin