जिन फूलों की खुशबू पर किताबों का हक़ था , वही फूल भवरों को अब भरमाने लगे है । छिपे थे जो चेहरे मुखोटों के पीछे , वही चेहरे नया रूप अब दिखाने लगे है । पलकों पर थम चुकी थी जिन अश्कों की माला , नर्म कलियों पर ओस बन अब बहकाने लगे है। जिन साजों पर जम चुकी थी परत धूल की , वही साज नया गीत अब गुनगुनाने लगे है । जिनके लिए कभी वो सजाते थे ख़ुद को, वही आईने देख उन्हें अब शर्माने लगे है..... पूनम अग्रवाल.......
छोड़ देते हैं मस्तियों को, नादानियों को नहीं देखते उन सपनों को जो सूरज और चांद को छूने का दिलासा दिलाते हैं दबा ...