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क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है,

क्यूँ इन नज़रों को उसका इंतज़ार आज भी है , कर दिया दिल से दूर मगर प्यार आज भी है , उनके चेहरे से इन आँखों का रिश्ता बड़ा अजीब है , ... देखे किसी और को लगता वही करीब है , ... दिल मे 1 बैचैनी साँसों मे भी उलझन सी है , ख्वाबों मे उसकी यादें आज भी दुल्हन सी है .

ऐ दोस्त अब तेरे बिना जीना गंवारा ना होगा

ऐ दोस्त अब तेरे बिना जीना गंवारा ना होगा, भूल जाऊं जो नाम 1 पल के लिए तुम्हारा ना होगा, तुम भी कंही अपनी दुनिया बसाओगे फिर से, पर हमारे बिना तुम्हारा भी गुज़ारा ना होगा. तेरी आँखों से भी फिर से बरसातें ही होंगी, जो तेरी आँखों के आगे ये नज़ारा ना होगा, तेरे कानो में गुन्जेंगे ये अल्फाज़ मेरे, इतनी आवाज़ देंगे जितना किसी ने तुझे पुकारा ना होगा. दिल के ज़ज्बातों को कागज़ पर उड़ेलोगे तुम भी, कांपेगी उंगलियाँ और कोई सहारा ना होगा, जब भी मिलेगा कोई ख़त तुझे गुमनामियों मे, ख्याल आएगा मेरा पर वो ख़त हमारा ना होगा.

जब मैं छोटा था, शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी

जब मैं छोटा था , शायद शामे बहुत लम्बी हुआ करती थी , वो बचपन के खेल , वो हर शाम थक के चूर हो जाना , अब शाम नहीं होती , दिन ढलता है और सीधे रात हो जाती है . शायद वक्त सिमट रहा है .. जब मैं छोटा था , शायद दोस्ती बहुत गहरी हुआ करती थी , ... दिन भर वो हुज़ोम बनाकर खेलना , वो दोस्तों के घर का खाना , वो लड़कियों की बातें , वो साथ रोना , अब भी मेरे कई दोस्त हैं , होली , दिवाली , जन्मदिन , नए साल पर बस SMS आ जाते हैं शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं .....

जनतंत्र का जन्म (Jantantra Ka Janam) - रामधारी सिंह 'दिनकर' (Ramdhari Singh 'Dinkar')

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता?हां,लंबी – बडी जीभ की वही कसम, “जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।” “सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?” ‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?” मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं; यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते ह...

एक तिनका (Ek Tinka) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariaudh')

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ, एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा। आ अचानक दूर से उड़ता हुआ, एक तिनका आँख में मेरी पड़ा। मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा, लाल होकर आँख भी दुखने लगी। मूँठ देने लोग कपड़े की लगे, ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी। जब किसी ढब से निकल तिनका गया, तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए। ऐंठता तू किसलिए इतना रहा, एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

सैनिक की मौत (Sainik Ki Maut) - अशोक कुमार पाण्डेय ( Ashok Kumar Pandey)

तीन रंगो के लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा लौट आया है मेरा दोस्त अखबारों के पन्नों और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर भरपूर गौरवान्वित होने के बाद उदास बैठै हैं पिता थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच बार-बार फूट पड़ती है पत्नी कभी-कभी एक किस्से का अंत कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है और किस्सा भी क्या? किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन फिर सपनीली उम्र आते-आते सिमट जाना सारे सपनो का इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग या फिर केवल योग कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी और नौकरी जिंदगी की इसीलिये भरती की भगदड़ में दब जाना महज हादसा है और फंस जाना बारूदी सुरंगो में ’शहादत! बचपन में कुत्तों के डर से रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त आठ को मार कर मरा था बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है? वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त दरअसल उस दिन अखबारों के पहले पन्ने पर दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था और उसी दिन ठीक उसी वक्त देश के सबसे तेज चैनल पर चल रही थी क्रिकेट ...

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे (Mere Swapn Tumhare Pas Sahara Pane Aayenge) - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते है अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे