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एक तिनका (Ek Tinka) - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (Ayodhya Singh Upadhyay 'Hariaudh')

मैं घमंडों में भरा ऐंठा हुआ, एक दिन जब था मुंडेरे पर खड़ा। आ अचानक दूर से उड़ता हुआ, एक तिनका आँख में मेरी पड़ा। मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा, लाल होकर आँख भी दुखने लगी। मूँठ देने लोग कपड़े की लगे, ऐंठ बेचारी दबे पॉंवों भागने लगी। जब किसी ढब से निकल तिनका गया, तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए। ऐंठता तू किसलिए इतना रहा, एक तिनका है बहुत तेरे लिए।

सैनिक की मौत (Sainik Ki Maut) - अशोक कुमार पाण्डेय ( Ashok Kumar Pandey)

तीन रंगो के लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा लौट आया है मेरा दोस्त अखबारों के पन्नों और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर भरपूर गौरवान्वित होने के बाद उदास बैठै हैं पिता थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच बार-बार फूट पड़ती है पत्नी कभी-कभी एक किस्से का अंत कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है और किस्सा भी क्या? किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन फिर सपनीली उम्र आते-आते सिमट जाना सारे सपनो का इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग या फिर केवल योग कि दे’शभक्ति नौकरी की मजबूरी थी और नौकरी जिंदगी की इसीलिये भरती की भगदड़ में दब जाना महज हादसा है और फंस जाना बारूदी सुरंगो में ’शहादत! बचपन में कुत्तों के डर से रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त आठ को मार कर मरा था बारह दु’शमनों के बीच फंसे आदमी के पास बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है? वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त दरअसल उस दिन अखबारों के पहले पन्ने पर दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था और उसी दिन ठीक उसी वक्त देश के सबसे तेज चैनल पर चल रही थी क्रिकेट ...

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे (Mere Swapn Tumhare Pas Sahara Pane Aayenge) - दुष्यंत कुमार (Dushyant Kumar)

मेरे स्वप्न तुम्हारे पास सहारा पाने आयेंगे इस बूढे पीपल की छाया में सुस्ताने आयेंगे हौले-हौले पाँव हिलाओ जल सोया है छेडो मत हम सब अपने-अपने दीपक यहीं सिराने आयेंगे थोडी आँच बची रहने दो थोडा धुँआ निकलने दो तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आयेंगे उनको क्या मालूम निरूपित इस सिकता पर क्या बीती वे आये तो यहाँ शंख सीपियाँ उठाने आयेंगे फिर अतीत के चक्रवात में दृष्टि न उलझा लेना तुम अनगिन झोंके उन घटनाओं को दोहराने आयेंगे रह-रह आँखों में चुभती है पथ की निर्जन दोपहरी आगे और बढे तो शायद दृश्य सुहाने आयेंगे मेले में भटके होते तो कोई घर पहुँचा जाता हम घर में भटके हैं कैसे ठौर-ठिकाने आयेंगे हम क्यों बोलें इस आँधी में कई घरौंदे टूट गये इन असफल निर्मितियों के शव कल पहचाने जयेंगे हम इतिहास नहीं रच पाये इस पीडा में दहते है अब जो धारायें पकडेंगे इसी मुहाने आयेंगे

सुभाष की मृत्यु पर ( Subhash Ki Mrityu Par) - धर्मवीर भारती (Dharamvir Bharti)

दूर देश में किसी विदेशी गगन खंड के नीचे सोये होगे तुम किरनों के तीरों की शैय्या पर मानवता के तरुण रक्त से लिखा संदेशा पाकर मृत्यु देवताओं ने होंगे प्राण तुम्हारे खींचे प्राण तुम्हारे धूमकेतु से चीर गगन पट झीना जिस दिन पहुंचे होंगे देवलोक की सीमाओं पर अमर हो गई होगी आसन से मौत मूर्च्छिता होकर और फट गया होगा ईश्वर के मरघट का सीना और देवताओं ने ले कर ध्रुव तारों की टेक - छिड़के होंगे तुम पर तरुनाई के खूनी फूल खुद ईश्वर ने चीर अंगूठा अपनी सत्ता भूल उठ कर स्वयं किया होगा विद्रोही का अभिषेक किंतु स्वर्ग से असंतुष्ट तुम, यह स्वागत का शोर धीमे-धीमे जबकि पड़ गया होगा बिलकुल शांत और रह गया होगा जब वह स्वर्ग देश खोल कफ़न ताका होगा तुमने भारत का भोर।

तुम्हे कैसे याद करूँ भगत सिंह?( Tumhe Kaise Yaad Karoon Bhagat Singh) - अशोक कुमार पाण्डेय ( Ashok Kumar Pandey)

जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें जिन कारखानों में उगता था तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज वहां दिन को रोशनी रात के अंधेरों से मिलती है ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत कि कांपी तक नही जबान सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते अभी एक सदी भी नही गुज़री और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे तुमने देखना चाहा था जिन हाथों में सुर्ख परचम कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने तुम जिन्हें दे गए थे एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब सजाकर रख दी है उन्होंने घर की सबसे खुफिया आलमारी मैं तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर अपने अपने चश्मे सजाने को तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं अवतार बनने की होड़ में तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह जबकि जानता हूँ की तुम्...

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे (Moko Kahan Dhoondho Re Bande) - कबीर (Kabir)

मोको कहां ढूँढे रे बन्दे मैं तो तेरे पास में ना तीरथ मे ना मूरत में ना एकान्त निवास में ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलास में मैं तो तेरे पास में बन्दे मैं तो तेरे पास में ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं बरत उपास में ना मैं किरिया करम में रहता नहिं जोग सन्यास में नहिं प्राण में नहिं पिंड में ना ब्रह्याण्ड आकाश में ना मैं प्रकुति प्रवार गुफा में नहिं स्वांसों की स्वांस में खोजि होए तुरत मिल जाउं इक पल की तालास में कहत कबीर सुनो भई साधो मैं तो हूं विश्वास में

लगता नहीं है जी मेरा (Lagta Nahin Hai Ji Mera) - बहादुर शाह ज़फ़र (Bahadur Shah Zafar)

लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में किस की बनी है आलम-ए-नापायेदार में कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़दार में उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन दो आरज़ू में कट गये दो इन्तज़ार में कितना है बदनसीब "ज़फ़र" दफ़्न के लिये दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में