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सावन का सूरज

मेघों में फंसे सूरज, तुम हो कहाँ? सोये से अलसाए से, रश्मी को समेटे हुए, तुम हो कहाँ ? मेरे उजालों से पूछों - मेरी तपिश से पूंछो- सूरज हूँ पर सूरज सा दीखता नहीं तो क्या ! पिंघली सी तपन मेरी दिखती है तो क्या ! मैं हूँ वही, मैं हूँ वहीं , मैं था जहाँ ___ पूनम अग्रवाल ......

प्रेम

गगन मांगा सूरज तो मिलना ही था। सागर माँगा मोती तो गिनना ही था। बगीचा माँगा फूल तो खिलना ही था। जग माँगा 'प्रेम' तो मिलना ही था॥ poonam agrawal

आवाज

तंग हो गली या कि सड़क धुली हुई , राह को एक चुनना होगा। आँखें हो बंद या कि खुली हुई स्वप्न तो एक बुनना होगा। बातें कुछ ख़ास या कि यादें भूली हुई, वायदा कोई गुनना होगा। सन्नाटा हो दूर या कि हलचल घुली हुई, आवाज को मन की सुनना होगा॥ पूनम अग्रवाल

आशा

बात ये बहुत पुरानी है, एक बहन की ये कहानी है। मांजी सब उनको कहते थे, प्रेमाश्रु सदा उनके बहते थे। कमर थी उनकी झुकी हुई, हिम्मत नही थी रुकी हुई। पूरा दिन काम वो करती थी, कभी आह नही भरती थी । सिर्फ़ काम और काम ही था, थकने का तो नाम न था। रसोई जब वो बनाती थी , भीनी सी सुगंध आती थी । चूल्हे पर खाना बनता था, धुए की महक से रमता था। कुछ अंगारे निकालती हर रोज, पकाती थी उस पर चाय कुछ सोच। शायद भाई कहीं से आ जाए, तुंरत पेश करुँगी चाय। थकान भाई की उतर जायेगी, गले में चाय ज्यूँ फिसल जायेगी। नही था वो प्याला चाय का , वो तो थी एक आशा। बुझी सी आँखों में झूलती , कभी आशा कभी निराशा। बहन के प्यार की न कभी, कोई बता सका परिभाषा..... पूनम अग्रवाल .....

भगवान् ( ईश्वर )

रोंदी मिट्टी का ढेर नहीं मैं , हवा के झोंके से उड जाऊँ । भ से भूमी हूँ मैं सम्पूर्ण - बादल का एक टुकडा नहीं मैं, बरस जाऊँ किसी आंगन में। ग से गगन हूँ मैं अनंत- मंद पवन का झोंका नहीं मैं, उड़ा लाऊ कुछ तिनके ,धूल । व से वायु हूँ मैं प्राण -रक्षक - टिमटिमाते दिए की लों नही मैं, बुझ जाऊँ दिए की बाती संग अ से अग्न हूँ मैं दाहक - झर झर बहती धार नहीं मैं, समा जाऊ किसी सरिता में. न से नीर हूँ मैं जीवन - दायक- सम्पूर्ण स्राश्ती के हम हैं विधाता , मिलकर बनते हैं 'भगवान्'- रूष्ट एक भी हो जाए फ़िर , मानव का नहीं है कल्याण । पंचतत्व हैं हम कहलाते ' हमसे हुवा सबका निर्माण। सर्वत्र हमारी पूजा होती। सम्पूर्ण जगत में हम विद्यमान। पूनम अग्रवाल-

प्रतिबिम्ब है वो मेरा

.. बित्तू हमेशा कहती रही कभी मेरे लिए भी कुछ लिखिए .... तो आज मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी प्रतिमुर्ती के लिए कुछ लिख रही हूँ.. ... कहते है लोग- बिटिया परछाई है तुम्हारी, मैं कहती हूँ मगर- परछाई तो श्याम होती है। न कोई रंग- बस सिर्फ़ बेरंग । वो तो है मेरा प्रतिबिम्ब - सदा सामने रहता है। वो तो है मेरी प्रतीमुरती - छवी मेरी ही दिखती है । ।

अंश

जब एक माँ अपनी नाजों से पली बेटी को उसके सपनो के राजकुमार के साथ विदा करती है। उस समय जो एहसास ,जो ख्याल मेरे मन को भिगो गए- शायद हरेक की ममता इसी तरेह उमड़ पड़ती होगी ........ ये रचना सिर्फ मेरी बिटिया के लिए ...... समाई थी सदा से वो मुझमें ... एक अंश के तरह॥ एहसास है एक अलगाव का पिंघल रहा है ... क्यों आज मेरी आँखों में ... ख्याल आते गए बहुत से... आकर चले गए खुश हूँ मैं ... इसलिए की अंश मेरा खुश है...... -------------- ख्यालो की तपिश से पिंघल रही है बरफ आँख की... रिश्ता कोई हाथों से फिसल रहा हो जैसे...