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भगवान् ( ईश्वर )

रोंदी मिट्टी का ढेर नहीं मैं , हवा के झोंके से उड जाऊँ । भ से भूमी हूँ मैं सम्पूर्ण - बादल का एक टुकडा नहीं मैं, बरस जाऊँ किसी आंगन में। ग से गगन हूँ मैं अनंत- मंद पवन का झोंका नहीं मैं, उड़ा लाऊ कुछ तिनके ,धूल । व से वायु हूँ मैं प्राण -रक्षक - टिमटिमाते दिए की लों नही मैं, बुझ जाऊँ दिए की बाती संग अ से अग्न हूँ मैं दाहक - झर झर बहती धार नहीं मैं, समा जाऊ किसी सरिता में. न से नीर हूँ मैं जीवन - दायक- सम्पूर्ण स्राश्ती के हम हैं विधाता , मिलकर बनते हैं 'भगवान्'- रूष्ट एक भी हो जाए फ़िर , मानव का नहीं है कल्याण । पंचतत्व हैं हम कहलाते ' हमसे हुवा सबका निर्माण। सर्वत्र हमारी पूजा होती। सम्पूर्ण जगत में हम विद्यमान। पूनम अग्रवाल-

प्रतिबिम्ब है वो मेरा

.. बित्तू हमेशा कहती रही कभी मेरे लिए भी कुछ लिखिए .... तो आज मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी प्रतिमुर्ती के लिए कुछ लिख रही हूँ.. ... कहते है लोग- बिटिया परछाई है तुम्हारी, मैं कहती हूँ मगर- परछाई तो श्याम होती है। न कोई रंग- बस सिर्फ़ बेरंग । वो तो है मेरा प्रतिबिम्ब - सदा सामने रहता है। वो तो है मेरी प्रतीमुरती - छवी मेरी ही दिखती है । ।

अंश

जब एक माँ अपनी नाजों से पली बेटी को उसके सपनो के राजकुमार के साथ विदा करती है। उस समय जो एहसास ,जो ख्याल मेरे मन को भिगो गए- शायद हरेक की ममता इसी तरेह उमड़ पड़ती होगी ........ ये रचना सिर्फ मेरी बिटिया के लिए ...... समाई थी सदा से वो मुझमें ... एक अंश के तरह॥ एहसास है एक अलगाव का पिंघल रहा है ... क्यों आज मेरी आँखों में ... ख्याल आते गए बहुत से... आकर चले गए खुश हूँ मैं ... इसलिए की अंश मेरा खुश है...... -------------- ख्यालो की तपिश से पिंघल रही है बरफ आँख की... रिश्ता कोई हाथों से फिसल रहा हो जैसे...

तुक्कल ....(ज़मीनी सितारे)

गुजरात में मकर संक्रान्ती के दिन पतंग - महोत्सव की अति महत्ता है। दिन के उजाले में आकाश रंगीन पतंगों से भर जाता है। अँधेरा होते ही पतंग की डोर में तुक्कल बांध कर उडाया जाता है। जो उड़ते हुए सितारों जैसे लगते है। उड़ती हुयी तुक्कल मन मोह लेने वाला द्रश्य उत्पन्न करती है। इस द्रश्य को मैंने कुछ इस तरह शब्दों में पिरोया है......... कारवाँ है ये दीयों का, कि तारे टिमटिमाते हुए। चल पड़े गगन में दूर , बिखरा रहे है नूर। उनका यही है कहना , हे पवन ! तुम मंद बहना । आज है होड़ हमारे मन में , मचलेंगी शोखियाँ गगन में। आसमानी सितारों को दिखाना, चाँद को है आज रिझाना। पतंग है हमारी सारथी, उतारें गगन की आरती। हम है जमीनी सितारे, कहते है हमे 'तुक्कल' ........ पूनम अग्रवाल ....

अख्स

एक चिडिया नन्ही सी लेकर छोटी सी आशा सुनहरी सी धूप मे नारंगी गगन के तले नन्हें से सपने पले बेखबर बेखौफ होकर चल पड़ी भरने उडान तैरती हुई मंद पवन में निहारती सुन्दर धरती को अकेली गुनगुनाती हुई सुख से मुस्काती हुई नही था शौक उसका सबसे ऊँची उडान भरुंगी ऊँची इमारत पर चधूगी तैरती हुई मंद पवन में थक जायगी जब - कही भी उतर जायेगी ठिकाना जहाँ पायेगी बीते कुछ पल गाते हुए सुख से भरमाते हुए - यकायक डोर आ छू गयी पंख उसके पसर गए मंद पवन में बसर गए धरती पर वो बिखर गयी आशाये उसकी फिसल गयी आँखे थी उसकी नम दिल में था गम- सोच रही है बिखरी हुई डोर से छितरी हुई क्या था कसूर मेरा ? क्यों हाल हुआ तेरा ? खून का कतरा न था पर था दोष किसका- शायद कही डोर का डोर वाला है बेखबर दोष है हवा के झोके का . . .. कई अख्स उभर आते है चिडिया में उतर जाते है सोचती हूँ कई बार- एक अक्स कही मेरा तो नही......... पूनम अग्रवाल.......

वो एक सितारा

आसमां के तारों में वो एक सितारा क्यों लगता है अपना सा। पलकें बंद कर देखूं तो सब क्यों लगता है सपना सा। बाहें किरणों की पसरा कर वह देख मुझे मुस्काता है। बस वही सिर्फ एक सितारा हर रोज मुझे क्यों भाता है। आसमां के तारों में वो एक सितारा क्यों लगता है अपना सा। बादल की चादर के पीछे जब वह छिप जाता है। बिछड़ा हो बच्चा माँ से जैसे इस तरह तडपाता है । आसमां के तारों में वो एक सितारा क्यों लगता है अपना सा। पलकें बंद कर देखूं तो सब क्यों लगता है सपना सा। .... - पूनम अग्रवाल .....

हाँ ! कविता हूँ मैं ....

हाँ ! कविता हूँ मैं - कवि की मासूम सी कल्पना हूँ मैं , कलम से कागज़ पर उकेरी अल्पना हूँ मैं । कहीँ किसी अंतर्मन की गहराई हूँ मैं , कहीँ उसी अंतर्द्वंद की परछाई हूँ मैं । हाँ !कविता हूँ मैं - कहीँ आँधियों से टकराता दिया हूँ मैं , कहीँ बोझिल सा धड़कता जिया हूँ मैं । हाँ !कविता हूँ मैं- कहीँ श्रृंगार के रस मे लिपटी हूँ मैं, कहीँ शर्माई सहमी सी सिमटी हूँ मैं । हाँ! कविता हूँ मैं- कहीँ विरह रस मे भीगा गीत हूँ मैं, कहीँ बंद कमल मे भ्रमर का प्रीत हूँ मैं। हाँ! कविता हूँ मैं- कहीँ चांद - तारों कीं उड़ान हूँ मैं , कहीँ मरुभूमि मे बिखरती मुस्कान हूँ मैं। हाँ ! कविता हूँ मैं- कवि कि मासूम सी कल्पना हूँ मैं, कलम से कागज़ पर उकेरी अल्पना हूँ मैं.... पूनम अग्रवाल