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अख्स

एक चिडिया नन्ही सी लेकर छोटी सी आशा सुनहरी सी धूप मे नारंगी गगन के तले नन्हें से सपने पले बेखबर बेखौफ होकर चल पड़ी भरने उडान तैरती हुई मंद पवन में निहारती सुन्दर धरती को अकेली गुनगुनाती हुई सुख से मुस्काती हुई नही था शौक उसका सबसे ऊँची उडान भरुंगी ऊँची इमारत पर चधूगी तैरती हुई मंद पवन में थक जायगी जब - कही भी उतर जायेगी ठिकाना जहाँ पायेगी बीते कुछ पल गाते हुए सुख से भरमाते हुए - यकायक डोर आ छू गयी पंख उसके पसर गए मंद पवन में बसर गए धरती पर वो बिखर गयी आशाये उसकी फिसल गयी आँखे थी उसकी नम दिल में था गम- सोच रही है बिखरी हुई डोर से छितरी हुई क्या था कसूर मेरा ? क्यों हाल हुआ तेरा ? खून का कतरा न था पर था दोष किसका- शायद कही डोर का डोर वाला है बेखबर दोष है हवा के झोके का . . .. कई अख्स उभर आते है चिडिया में उतर जाते है सोचती हूँ कई बार- एक अक्स कही मेरा तो नही......... पूनम अग्रवाल.......

वो एक सितारा

आसमां के तारों में वो एक सितारा क्यों लगता है अपना सा। पलकें बंद कर देखूं तो सब क्यों लगता है सपना सा। बाहें किरणों की पसरा कर वह देख मुझे मुस्काता है। बस वही सिर्फ एक सितारा हर रोज मुझे क्यों भाता है। आसमां के तारों में वो एक सितारा क्यों लगता है अपना सा। बादल की चादर के पीछे जब वह छिप जाता है। बिछड़ा हो बच्चा माँ से जैसे इस तरह तडपाता है । आसमां के तारों में वो एक सितारा क्यों लगता है अपना सा। पलकें बंद कर देखूं तो सब क्यों लगता है सपना सा। .... - पूनम अग्रवाल .....

हाँ ! कविता हूँ मैं ....

हाँ ! कविता हूँ मैं - कवि की मासूम सी कल्पना हूँ मैं , कलम से कागज़ पर उकेरी अल्पना हूँ मैं । कहीँ किसी अंतर्मन की गहराई हूँ मैं , कहीँ उसी अंतर्द्वंद की परछाई हूँ मैं । हाँ !कविता हूँ मैं - कहीँ आँधियों से टकराता दिया हूँ मैं , कहीँ बोझिल सा धड़कता जिया हूँ मैं । हाँ !कविता हूँ मैं- कहीँ श्रृंगार के रस मे लिपटी हूँ मैं, कहीँ शर्माई सहमी सी सिमटी हूँ मैं । हाँ! कविता हूँ मैं- कहीँ विरह रस मे भीगा गीत हूँ मैं, कहीँ बंद कमल मे भ्रमर का प्रीत हूँ मैं। हाँ! कविता हूँ मैं- कहीँ चांद - तारों कीं उड़ान हूँ मैं , कहीँ मरुभूमि मे बिखरती मुस्कान हूँ मैं। हाँ ! कविता हूँ मैं- कवि कि मासूम सी कल्पना हूँ मैं, कलम से कागज़ पर उकेरी अल्पना हूँ मैं.... पूनम अग्रवाल

मुखोंटो ने मुख को बदल लिया.....

जिस कश्ती पर हुए सवार , हवाओं ने रुख को बदल लिया। गुनगुनाने की चाहत क्या की, गीतों ने सुर को बदल लिया। संवरना चाहा जब भी कभी, आइने ने खुद को बदल लिया। मुस्कुराने की बात क्या की, मुखोंटों ने मुख को बदल लिया... पूनम अग्रवाल....

अब कभी न हंस पाएंगे ....

न कर ख्वाहिश मुझसे तू फिर उस शाम की। अब वो अश आर कभी सुनाये ना जायेंगे । ए दोस्त! पहले ही एहसान बहुत हैं मुझपर, मुझसे दुआ को अब हाथ उठाये न जायेंगे। दिल की दुनिया में शिवाले बनाने की कमी है, मेरे लब पे वो अफ़साने न कभी बिखर पायेंगे। जिन्दगी तो मेरी बस खिजा बनकर रह गयी , अब अपने नजरे करम का नजराना न करा पाएंगे। गम लेकर खुशियो को बाँट दिया है हमने , हर जगह रुस्वां हुये अब कभी न हंस पायेंगे.......

अगर आह्वान करूं चांद का...

देखती हूँ चांद को - लगता है बहुत भला , सोचती हूँ कईं बार - अगर आह्वान करूं चांद का क्या आएगा चांद धरती पर? अगर आ भी गया तो बदले में कन्या रत्न ना थमा दे कही। मगर उस कन्या का होगा क्या हश्र। इस धरती की पुत्री को धरती मे समाना पड़ता है। वो तो दूसरी धरती से आयी होगी। क्या होगा उसका। यही सोचकर - ड़र जाती हूँ । नहीं करती आह्वान चंद्रदेव का। हे चांद ! तुम जहाँ हो वहीँ भले हो मुझे........ -पूनम अग्रवाल
ना छेड़ो मेरे गम को इस तरह , एक चिंगारी अभी बाक़ी है। जख्म तो भर गया है मगर, ये दाग अभी बाक़ी है। फूलों का काँटों से वास्ता इतना, जब तक ये पराग अभी बाक़ी है न कर गम ए दोस्त!बहारों का, जख्म पुराने है दर्द अभी बाक़ी है। ज़िन्दगी का जाम तड़क कर टूट गया, मौत की हंसी अभी बाक़ी है। ए दोस्त !दामन भरा रहे तेरा फूले से, यही दुआ अकेली अभी बाकी है........ पूनम अग्रवाल.......